March 22, 2011

गांधी दूत आज भी फैला रहे अमन-चैन का संदेश




दांडी सफरनामा

वसना-मतर समरेन्द्र शर्मा

दांडी मार्ग पर चलते हुए एक गांव से दूसरे गांव के बीच फासला कभी-कभी भारी लगने लगता है। दरअसल, गांव की सीमा खत्म होते ही अगले पड़ाव तक सड़कों पर तेज रप्तार दौड़ते वाहन के शोर-शराबे, लोगों के कामकाज और रोजी-रोटी के तनाव के अलावा कुछ नजर नहीं आता। ऐसा लगता है कि मानो इंसान मशीन हो गया है और उसे बटन दबाकर छोड़ दिया गया है। इस सब के बीच तसल्ली की बात है कि इससे परे राह और भी कुछ है, जो थकान मिटाने के साथ दो पल मन को सुकून देता है। यहां के पेड़ो पर झूलते बंदरों, दाना चुगते कबूतरों और कहीं-कहीं पर रामधुन देख-सुनकर लगता है कि भले ही इंसान और संसार बदल गया हो, लेकिन गांधी के तीन बंदर, शांति के प्रतीक कबूतर तथा भजन में डूबे भक्त गांधी के दूत बनकर संदेश जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं।

दांडी यात्रा के दूसरे दिन नवागाम से निकलकर हमने रात और तीसरे दिन शाम तक वसना,मतर,दमन और नादियाड का सफर तय किया। सफर काफी लंबा था। ऐसे में चलना मुशि्कल और यात्रा बोझिल सी लगने लगी थी। ऊपर से हाइवे पर फर्राटे से दौड़ते ट्रकों के शोर-शराबे, धूल, गर्मी ने माहौल को बुरी तरह नीरस बना दिया। दिमाग में ख्याल आता कि पिछले पड़ाव पर विश्राम लेना शायद बेहतर होता। यात्रा के इन ऊबाऊ ख्यालों के बीच नजरें जब सड़क पर बंदरों की चहलकदमी पर पड़ी, तो मन उनकी तरफ आकर्षित हुआ। करीब जाने पर उनकी धमाचौकड़ी और झींगामस्ती से थोड़ी और राहत मिली। पहले से रूकने और सुस्ताने के लिए बहाना ढ़ूढ़ रहे हाथ-पैर के लिए अच्छा मौका था। कंधे पर लदे बैग को उतारकर हमने बंदरों की मस्ती को कैमरे में कैद करना शरीर को थोड़ी राहत मिला और धूप में शांत बैठे बंदरों के चेहरे भी खिल गए और उन्होंने अपनी उछल कूद को तेज कर दिया। उनका अंदाज बिल्कुल वैसा ही लग रहा था जैसे वे भी गांव वालों की तरह हमारा स्वागत खुशी का इजहार कर रहे हैं। बंदरों की टोली में छोटे-छोटे बच्चे भी थे। हमे देखकर अपनी मां के पेट में दुबके बैठे नन्हे-मुन्ने बाहर निकलने के लिए मचलने लगे। कुछ ने तो उछल-कूद करते हमारे पास के पेड़ में आकर तरह-तरह पोज भी देना शुरू कर दिया। उनकी मस्ती देखकर मजा भी आने लगा और गांधी के तीन बंदरों की याद भी आने लगी।

मन अपने आप ही इस बात से गदगद होने लगा कि देखो रास्ते पर इंसानों की बस्ती नहीं है तो क्या हुआ। मानों बंदर कह रहे हों, हम तो हैं। मन अपने आप अहसास करने लगा कि गांधीजी ने गांवों में रूककर लोगों को अपना संदेश दिया था, हो सकता है कि उनकी बातें इन बंदरों तक भी पहुंची होगी। उस समय के लोगों की तरह हमारे पूर्वजों ने भी तो उनका स्वागत किया होगा। वैसे भी गांधीजी ने अपना एक सूत्र बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो और बुरा मत सुनो बंदरों के जरिए ही जन-जन तक पहुंचाया। गांधीजी के इन वास्तविक संदेश वाहकों से मुलाकात के बाद राहत मिली, तो हमने आगे का सफर पूरे उत्साह के साथ दोबारा शुरू किया। तब-तक वसना और मतर का सफर भी पूरा हो गया।

इसी तरह नादियाड तक की यात्रा में पक्षियों की चहचाहट और कबूतरों की गुटर-गू ने हमें खूब लुभाया। नादियाड के संतराम मंदिर के बाहर कबूतरों की गुटर-गू सुनकर लगा रहा था वे भी गांधीजी के ठहरने वाले स्थान पर जमा होकर शांति और अमन का संदेश फैला रहे हैं। गांधीजी ने अहिंसा के बल पर देश को आजादी दिलाने अंग्रेजों की भारी यातनाएं झेली, लेकिन कभी भी हिंसा और अशांति का सहारा नहीं लिया। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में उनके इस हथियार का आज भी लोहा माना जाता है। हालांकि अंग्रेजी हूकुमत शुरूआत में गांधीजी के इस अस्त्र को साधारण मानकर चल रही थी। यही वजह थी कि उन्होंने इस पूरे आंदोलन के दौरान कुछ खास उग्र तेवर नहीं दिखाए। वे तो यह मानकर चल रहे थे कि गांधीजी और उनके साथी इतनी लंबी यात्रा का थकान बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे और खुद-ब-खुद टूट जाएंगे। ऐसे में उन्हें कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन वास्तव हुआ इसके उलट। अंग्रेजों को हार माननी पड़ी और गांधी ने शांति और अहिंसा के मार्ग पर चल कर देश को फिरंगियों से मुक्त कराया।

संतराम, गांधीजी और सरदार पटेल जैसे महापुरूषों की कर्म, रण और जन्म भूमि नादियाड में जुटे शांति के दूतों की गुटर-गु उनके संदेशों के अलावा क्या कह सकती है। इसी प्रांगण में महात्मा गांधी के प्रिय राम धुन का संदेश भी महापुरूषों के प्रति नमन का भाव प्रकट करता है। संतराम मंदिर में पिछले दो महीने से चौबीसो घंटे राम भजन का कार्यक्रम चल रहा है। लगभग 180 साल पुराने इस मंदिर में यह प्रकिया अगले 20 सालों तक चलने वाली है। संतराम को मानने वालों ने उनके महाप्रयाण के 200 साल पूरे होने तक चौबीसो घंटे राम भजन करने का निर्णय लिया है। इस मंदिर व शहर ने अपने भीतर गांधीजी-सरदार पटेल की कई और यादों को सहेजकर रखा है। इसके बारे में हम आपको जानकारी अगली किश्त में देंगे।

सरकार ने भी खोला खजाना

दांडी मार्ग और गांवों को विकास की दृष्टि से देखें, ऐसा लगता है कि पिछले कुछ सालों में काफी काम हुए हैं। केंद्र और राज्य सरकारों ने कई प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दी है। इस रास्ते को हैरिटेज मार्ग घोषित किया गया है। अभी तक के सफर में सभी जगह लंबी-चौड़ी सड़कें दिखने मिली। गांव के पहुंच मार्ग भी पक्के और अच्छे हैं। इसके अलावा नवागाम से दांडी तक यात्रियों के लिए 22 विश्राम भवन को मंजूरी दी गई है। बताया गया कि सभी जगहों पर काम अंतिम चरण पर है। इस साल नवागाम से दांडी तक बड़े विश्राम गृह चालू कर दिए जाएंगे। इसके अलावा गांवों की पंचायतों और नगर पालिकाओं को विकास के लिए पर्याप्त फंड दिए जा रहे हैं। हर गांव में स्कूल, अस्पातल और पेय जल के बेहतर सुविधा उपलब्ध हैं। पंचायतों-पालिकाओं में साफ-सफाई पर भी खास ध्यान दिए जाते हैं। यहां रहने वाले लोग भी सफाई के प्रति खासे जागरूक नजर आते हैं। दांडी यात्रा के समय के गांव में बड़े मकान नजर आते हैं। कई नगर पालिका तो किसी मामले में शहर से पीछे नहीं है। कहा जा सकता है कि दोनों सरकारें दांडी के राह पर पड़ने वाले गांवों व शहर के लिए खुलकर पैसा उपलब्ध करा रही है।

March 21, 2011

दिलों में ताजा है धुंधली स्मृतियां और पदचिंह





दांडी सफरनामा

नवागाम से समरेन्द्र शर्मा


महात्मा गांधी के दांडी कूच के दूसरे दिन शाम को नवागाम से आंदोलन ने अपनी रफ्तार पकड़ी थी। इस गांव में ही आगे की रणनीति तय करने गांधीजी और सरदार पटेल के बीच अहम बैठक हुई थी। वह स्थान आज भी सुरक्षित है, जहां आंदोलन की अगुवाई कर रहे दोनों नेता मिले थे और गांधीजी रात बिताई थी। यहां दीवार पर लगी शिलालेख इस ऐतिहासिक क्षण की साक्षी है। इस स्थान के समीप दांडी यात्रियों के लिए विश्राम गृह भी बनाया जा रहा है। इसके अलावा गांव में गांधीजी से जुड़ी धुंधली स्मृतियों और उनके पदचिंह लोगों के दिलों में आज भी ताजा है।

नमक कानून के खिलाफ गांधी की दांडी यात्रा के दूसरे दिन का पड़ाव बरेजा और नवागाम में था। उन्होंने दोपहर को बरेजा तथा रात में नवागाम में विश्राम किया था। बरेजा में उन्होंने विदेशी कपड़ों और वस्तुओं को त्यागने का आव्हन किया था। जबकि नवागाम में उन्होंने फिरंगियों के खिलाफ लड़ाई के लिए बल मांगा था। उनकी दोनों बातों का गांव में ऐसा असर हुआ कि गांव के बच्चे, बूढ़े, महिला,पुरूष सभी वर्ग के लोग आंदोलन से जुड़ गए।

असलाली से निकलकर जब हम बेराज और नवागाम पहुंचे, तो यहां भी लोगों ने दिल खोलकर हमारा स्वागत किया। नवागाम में शाम को साढ़े 6 बजते ही गांधीजी एक मैदान में रूककर प्रार्थना के लिए आसान लगा लिया था। आंदोलनकारी भी उनके साथ बैठ गए और वैष्णव तन जेणे कहिए गाया। इस स्थान पर आज स्कूल है। इस स्थान पर गांधी जी की 4 लाख रूपए की लागत से प्र तिमा लगाई गई है। जिसमें उन बातों का जिक्र किया गया है, जैसा यहां गांधीजी ने किया था।

प्रार्थना सभा से कुछ दूर प्राचीन हनुमान मंदिर के समीप धर्मशाला में गांधीजी ने अपना डेरा लगाया था। धर्मशाला का वह कक्ष जीर्ण-शीर्ण हालात में आज भी उनकी स्मृतियों को सहजे हुए है। एक कमरे में गांधीजी के दांडी के लिए रवाना होने के बाद लगाए गए पत्थर में सरदार पटेल से मुलाकात सहित अन्य महत्वपूर्ण बातों का गुजराती में लिखा ब्यौरा काफी खास मायने रखता है। दरअसल, इस आंदोलन की रूपरेखा सरदार पटेल ने बनाई थी। यात्रा शुरू होने से काफी पहले वे लोगों को एकजुट करने गांव-गांव घूम रहे थे और लंबे अंतराल के बाद दोनों नेता इस गांव में मिले थे। माना जाता है कि इस स्थान से आंदोलन ने पूरे देश में जोर पकड़ा था। यहां पर गांधी के सानिध्य का अनुभव करके स्कूली बच्चे दोपहर का भोजन करते हैं।

इस जगह को सहेजकर रखने के लिए यहां पर काफी काम किए जा रहे हैं। दांडी यात्रियों के रूकने के लिए यहां 50 लाख से अधिक की लागत से विश्राम गृह बनकर तैयार है। दो-मंजिला इस भवन में कार्यक्रम के लिए हाल भी बनाए गए हैं। एक-दो महीने के भीतर इसका लोकार्पण किए जाने की तैयारी है। इसके अलावा भवन के सामने गांधीजी की आदमकम प्रतिमा भी लगाने की तैयारी है।

इस गांव में अंग्रेजी सरकार की यातनाओं के निशान आज भी मौजूद हैं। इस आंदोलन में गांधी के साथ रहे देवशंकर दवे के पोते महेंद्र दवे बताते हैं कि उनके दादा को अंग्रेजों ने दांडी सत्याग्रह से पहले इतनी बुरी कदर पीटा थी कि उनकी कमर तक टूट गई थी। उन्होंने प्याज पर टैक्स लगाने के खिलाफ आवाज उठाई थी और गांव वालों ने प्याज बेचने से इंकार कर दिया था। किसानों ने अपनी फसल को एक स्थान पर इकट्ठा करके रख दिया था। जिसके बाद अंग्रेज सरकार के सैनिकों ने उन पर जमकर लठाईयां बरसाई थी और आंदोकारियों को जेल में डाल दिया था। अंग्रेजी हूकुमत के समय जेल आज भी जस का तस है। हालांकि फिलहाल यहां लोग रहते हैं। इस स्थान पर अंग्रेजों के समय बनाए गए शिव मंदिर में लोग मत्था टेकते हैं।

सेनानी स्व देवशंकर दवे के 80 वर्षीय पुत्र श्याम लाल दवे दांडी यात्रा को याद करते हुए रो पड़ते हैं। वे बताते हैं कि अंग्रेजो के जुल्मों को सहनते हुए सेनानियों ने देश को आजादी दिलाई। यहां के युवा भी गांधीजी और उनके साथियों के बलिदान को याद करके गर्व की अनुभूति करते हैं। युवाओं को कहना है कि उनकी कोशिश रहती है कि गांधीजी के बताए रास्तों पर चलकर देश का नाम दुनिया में रोशन करें।

चाय-पान की नहीं है दुकानें

दांडी यात्रा पर पड़ने वाले गांवों की खासियत है कि यहां व्यसन और सामाजिक बुराईयों के खिलाफ गांधीजी के संदेश का आज भी पालन किया जाता है। नवागाम से पहले बरेजा में गांधी ने कहा कि अगर आप लोग चाय पीते रहेंगे और विदेशी कपड़े पहनते रहेंगे, तो कभी देश में स्वराज की स्थापना नहीं हो सकती है। इसलिए इनका त्याग करना आवश्यक है। इसके बाद यहां के लोगों ने विदेशी कपड़ों की होली जलाकर चाय पीना छोड़ दिया था। नवागाम में इसका काफी हद तक पालन किया जा रहा है। 10 हजार की आबादी वाले इस गांव में एक भी चाय और पान की दुकान नहीं है। लोगों का कहना है कि गांधीजी ने चाय के बहिष्कार का आव्हान किया था, इसलिए उन्होंने तय किया है कि चाहे जो भी व्यापार कर लें, लेकिन चाय और पान का व्यवसाय नहीं करेंगे। इसी तरह यहां पर शराब के खिलाफ लोग में जागरूकता है। हालांकि पूरे प्रदेश में शराबबंदी लागू है, इसके बावजूद लोग नशे के खिलाफ लोगों को जागरूक करते रहते हैं।

March 19, 2011

देखो! गांधी टोपी और सूत की माला से बदलती तस्वीर



दांडी सफरनामा

असलाली से समरेन्द्र शर्मा

महात्मा गांधी की राह (दांडी यात्रा) पर चलने के लिए अगर आपके पास गांधी टोपी और सूत के माला है, तो समझ लीजिए आपकी आधा यात्रा तो अपने आप सहज हो जाएगी। जब हम गांधी टोपी और सूत की माला पहनकर दांडी के लिए निकले तो पता नहीं चला कि कब 13 मील का सफर तय करके असलाली पहुंच गए। टोपी और माला को देखकर लोग काफी उत्साह से आवभगत करते हैं। वे फिर यह नहीं देखते कि यात्री किस जात या धर्म का है। उनके लिए इतनी जानकारी मायने रखती है कि वह दांडी यात्री है। लोगों ने हमारे साथ यात्रा के लिए निकले अंग्रेज युवक ज्यस्पर का भी उतनी ही गर्मजोशी से स्वागत किया, जितना हमारा किया। लोग इस बात से भी काफी गदगद नजर आए कि एक फिरंगी भी गांधीजी के रास्ते पर चल पड़ा है। रास्ते पर मेरा और अंग्रेज युवक का उत्साह उस समय और दुगुना हो गया जब सुनने मिला देखो हिंदी-अंग्रेज साथ-साथ।

दांडी कूच के ऐतिहासिक तारीख के दिन हमने भी साबरमती आश्रम से सुबह सात बजे अपनी यात्रा शुरू की। हमारा पहला पड़ाव कोचरप आश्रम था। दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद गांधीजी ने यही डेरा डाला था। वे यहां लगभग दो सालों तक रहे। इलाके में छूआछूत की भावना और प्लेग की महामारी की वजह से गांधीजी को यह स्थान छोड़ना पड़ा। लोग बताते हैं कि इस आश्रम में एक हरिजन दंपत्ति को शरण देने से गांधीजी को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। उसके बाद उन्होंने साबरमती आश्रम को अपना डेरा बनाया। इस स्थान के चयन के पीछे गांधीजी ने दलील थी कि यहां से श्मसान और जेल दोनों नजदीक हैं और दोनों जगह जाने के लिए उन्हें लंबी यात्रा नहीं करनी पड़ेगी।

कोचरप आश्रम में थोड़ी देर विश्राम के बाद हम चंदोला तालाब और असलाली पहुंचे। चंदोला तालाब में गांधीजी ने दोपहर तथा असलाली में रात्रि विश्राम किया था।

पहले दिन की यात्रा के दौरान रास्ते में हमे तपती धूप और भारी भरकम ट्रैफिक के कारण तकलीफ हुई, लेकिन गांव के लोगों के उत्साह और प्रे म को देखकर थकान मानो गायब सा हो गया। यहां के लोग गांधी टोपी और माला देखकर खुद ब खुद समझ गए कि हम दांडी यात्रा के लिए निकले हैं। सभी लोगों ने भरपूर सहयोग किया। मेरे साथ चल रहे एक अंग्रेज युवक का भी लोगों ने दिल से स्वागत किया। किसी के मन यह भावना नजर नहीं आई कि गांधीजी ने अंग्रेजों के खिलाफ ही मोर्चा खोला था, ऐसे में उनका यहां काम हो सकता है। इसके पहले भी पिछले साल ब्रिटेन की उच्चायुक्त की पत्नी जिली बकिंघम ने दांडी यात्रा की थी। साफ है कि गांधीजी के विचारों और सिद्धांतों को अपनाने में फिरंगी भी काफी दिलचस्पी दिखा रहे हैं।

असलाली के अपने भाषण में गांधीजी ने कहा था कि केवल असहयोग के हथियार को अपनाओ। उन्होंने सरकारी टैक्स, नौकरियों और सामानों के बहिष्कार का आव्हान किया, तो सबसे पहले यही के मुखी रणझोण भाई ने अंग्रेजों की नौकरी से त्यागपत्र का एलान किया था। उनके इस्तीफे ने पूरे देश में खलबली मचा दी थी और लोगों ने फिरंगियों और उनकी वस्तुओं का खुलकर विरोध शुरू कर दिया।

दांडी यात्रा के समय इस गांव की आबादी केवल 17 सौ थी। अब इसकी जनसंख्या बढ़कर 6 हजार हो गई है। गांधीजी ने जिस धर्मशाला में रात बिताई थी, वहां अब पंचायत भवन और आरोग्यधाम बन गया। हमने भी इसी जगह को अपना ठिकाना बनाया। हमने जब गांव के सरपंच जनक भाई बीरा से संपर्क कि उन्होंने काफी उत्साह से अगुवानी की। यहां के एक प्रतिष्ठित गुजराती परिवार ने अपने घर भोजन करवाया। ऐसा लगा जैसे अपने ही घर में बैठकर भोजन कर रहे हैं।

ऐतिहासिक दांडी यात्रा के साक्षी असलाली गांव में काफी बदलाव हो गया है। गांव के बड़े-बुजर्गों के मुताबिक गांधीजी के प्रवास के दौरान गांव के आसपास जंगल हुआ करता था। गांधीजी ने पगड्डी के किनारे यहां सभा ली थी। अब गांव में झोपड़ियों के बजाए पक्के मकान और पगड्डी की जगह क्रांक्रीट के सड़क ने ले ली है। गांव में शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर अच्छी जागरूकता दिखाई पड़ी। घर तथा सड़कों पर कहीं भी बहुत ज्यादा गंदगी नजर नहीं आई।

गांव में भले ही काफी बदलाव हुए हैं लेकिन आज भी लोगों के मन में गांधीजी के विचारों के प्रति काफी सम्मान है। गांव के सयाने जरूर इस बात दुखी है कि गांधीजी के विचारों को आत्मसात करने और उनकी स्मृतियों को सहेजने की दिशा में वे कोई सार्थक प्रयास नहीं कर रहे हैं। गांधीजी ने हमे विदेशी वस्तुओं को त्यागने की शिक्षा दी थी, लेकिन आज हम उसी के गुलाम होते जा रहे हैं। असलाली गांव के सेवानिवृत शिक्षक नटवर भाई पटेल का कहना है कि बापू की बताई बातों को छोड़कर हम पाश्चात्य संस्कृति की ओर भाग रहे हैं। टीवी, क्रिकेट और अंग्रेजी ने हमे एक बार फिर अपना गुलाम बना लिया है।

इस यात्रा में अंग्रेज युवक ज्यस्पर के साथ वक्त गुजारने का मौका मिला। बातचीत में प्राचीन इतिहास में उसकी खासी दिलचस्पी है। उसने अपनी पढ़ाई भी इसी विषय में की है। दो साल पहले जब गांधीजी के बारे में सुना और पढ़ा, तो वह उनसे काफी प्रभावित हुआ। उनके सिद्धांतों और विचारों को बेहतर ढ़ंग से जानने के लिए दांडी यात्रा पर आए हैं। उसका कहना है कि गांधीजी के अहिंसा और समानता के भाव बड़ा रहस्य है। इसके बलबूते पर उन्होंने पूरी दुनिया को नया सबक सिखाया है। गांधीजी के विचारों को जानने के बाद वे खुद में काफी बदलाव महसूस करते हैं। वे हर पहलूओं पर सकरात्मक ढ़ंग से सोचने लगे हैं। उनकी विचारधाराओं का ही नतीजा है कि उनके चरित्र की जटिलताएं खत्म हो रही है और वे पहले से ज्यादा सरल महसूस करते हैं

March 17, 2011

पता नहीं कब और कैसे भरभरा गई मुठ्ठी भर नमक





अहमदाबाद, 17 मार्च। चाहिए बस एक मुठ्ठी नमक और जाग गया पूरा आवाम। महात्मा गांधी ने जब 12 मार्च 1930 को फिरंगी हूकूमत के खिलाफ नमक कानून तोड़ने के लिए दांडी कूच किया था,तो पूरे देश को समझ में आ गया कि यह नमक की लड़ाई देश के स्वाभिमान और बुनियादी हक के लिए है। भले ही इस यात्रा में गांधीजी के साथ 78 लोग शामिल थे, लेकिन देश के बच्चे-बच्चे और विदेश से भी उन्हें भरपूर समर्थन मिल रहा था। मुठ्ठी भर नमक के बहाने गांधीजी ने लोगों को ऐसे पिरोया कि अंग्रेजों को आखिरकार मुल्क छोड़ना पड़ा। आजाद भारत के इन 63 सालों में मुठ्ठी की एकता कब और कैसे भरभरा गई, पता ही नहीं चला। हालात यह है कि गांधीजी के सिद्धांत और आदर्श केवल मुन्नाभाईयों की गांधीगीरि में देखने-सुनने मिलती है। इस बात का मलाल उन लोगों के चेहरों पर साफ नजर आता है, जो आज भी गांधीजी के बताए रास्तों पर चलना पसंद करते हैं।

यह बात हम सभी जानते हैं कि गांधीजी ने दांडी यात्रा केवल नमक कानून तोड़ने के लिए नहीं की थी, इसके पीछे उनका मकसद बिल्कुल साफ था कि वे देश में स्वराज और सुराज लाना चाहते हैं। दांडी मार्च के दौरान वे अपने भाषणों के जरिए लोगों को विदेशी कपड़ों को छोड़कर खादी पहनने और व्यसनों को त्यागने का आग्रह करते थे। उनकी दलील थी कि विदेशी सामानों और नमक के कारण देश का लाखों-करोड़ों रूपया बाहर जा रहा है। यात्रा के दौरान गांधीजी प्राय: सभी गांवों-कस्बों में रूककर इन्हीं बातों को समझाने की कोशिश करते थे, इसका नतीजा देश को आजादी के रूप मिला। लेकिन स्वराज स्थापना के इतनों बरसों बाद भी देश सुराज के लिए दूसरे गांधी का मुंह ताक रहा है।

दरअसल अहमदाबाद आने के बाद दो किस्सों ने मुझे ऐसा सोचने के लिए मजबूर किया। पहले वाक्ये में मुझे एक गांधी समर्थक ने बताया कि लगे रहो मुन्नाभाई फिल्म के रिलीज होने के बाद साबरमती आश्रम में बच्चों की भीड़ भी आती है। माता-पिता बच्चों का यहां तब घुमाना शुरू किया जब बच्चों ने फिल्म देखने आने की जिद की। मतलब साफ है कि आज गांधीजी सिर्फ विचारों और किताबों तक सीमित हैं। जबकि उनकी बताई बातें रोजाना के काम से जुड़ी हैं। लेकिन घरों में गांधीजी का जिक्र कुछ मौकों पर ही आता है।

दूसरा वाक्या उस समय हुआ जब मैं आश्रम में किताबें देख रहा था, उसी समय एक खादीधारी सयाने से दिख रहे व्यक्ति ने आश्रम के संचालक से सवाल किया कि गांधीजी तो चले गए, अब आगे क्या। उनकी बातों में व्यंग नजर आ रहा था। हालांकि मुझे बाद में बताया कि वे एक बड़े गांधीवादी विचारक माने जाते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि गांधीजी की विचारधारा और उनके पदचिंह अहमदाबाद में ही धुंधले हो रहे हैं। इस बात से वे लोग भी इत्तेफाक रखते हैं, जो अपने पूर्वजों और गांधीजी से मिली विरासत को सहेजे हुए हैं।

गांधीसेना के अध्यक्ष और चार बार के दांडी यात्री धीमंत भाई मानते हैं कि गांधीजी की विचारधारा और आदर्शों के प्रचार-प्रसार के लिए केंद्र सरकार को खास ध्यान देना चाहिए। उनके नाम पर लाखों-करोड़ों रूपए खर्च तो हो रहे हैं, लेकिन उसकी सार्थकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गांधीजी के बारे में नई पीढ़ी को कुछ भी नहीं मालूम है। वे कहते हैं कि सरकार के पास अभी समय है। इस दिशा में सोचना चाहिए और स्कूल की पढ़ाई की शुरूआत से गांधीजी पर विशेष पाठ्यक्रम होना चाहिए। गांधी का उपयोग आजकल दिखावे और प्रचार-प्रसार के लिए ज्यादा होने लगा है।

वे बताते हैं कि गांधीजी ने उनके परदादा को खादी के काम के लिेए बुलाया था। पिता के विरोध के बावजूद वे इन दिनों इमाम मंजिल में खादी का काम देखते हैं। ब्याज पर पैसे लेकर उन्होंने दो लूम खरीदा है। लेकिन पूरे शहर में सूत कातने के लिए कोई कारीगर नहीं है। गांवों से कारीगर बुलवाकर खादी बनाते हैं। उन्हें तसल्ली इस बात की है कि गांधीजी के बताए रास्तों पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। धीमंत भाई साल 1998 से लेकर अब तक चार बार राजीव-सोनिया गांधी सहित कई हस्तियों के साथ दांडी मार्च कर चुके हैं। वे एक बार दक्षिण अफ्रीका में 241 मील की यात्रा कर चुके हैं।

धीमंत भाई के ही परिवार के ही हिम्मत भाई और जय सिंह भाई भी साथ-साथ कई बार यात्रा कर चुके हैं। जय सिंह भाई रिजर्व बैंक में नौकरी करते हुए रिटायर हुए हैं। वे बताते हैं कि गांधी स्कूल में पढ़ने के कारण शुरू से उनके विचारधारा से प्रभावित थे। आज भी घर के साथ-साथ सड़क की सफाई के लिए बड़ा सा झाड़ू लेकर निकल पड़ते हैं। संस्मरण सुनाते हुए वे कहते हैं कि रास्ते में गांव वाले काफी उत्साह से हर दांडी यात्री का स्वागत करते हैं। खाने-पीने की चीजों से लेकर रहने तक का ध्यान रखते हैं। अपनी यात्रा के दौरान उनकी कोशिश होती है कि लोगों और स्कूल के बच्चों को गांधी के बताए रास्तों पर चलने के लिए प्रेरित करें।

हिम्मत भाई बताते हैं कि उनकी दांडी यात्रा का मकसद है कि वे ज्यादा से ज्यादा लोगों को गांधीजी के विचारों से जोड़ सकें। सरकारी नौकरी में रहते हुए उन्होंने अवकाश लेकर यात्राएं की। पहली बार यात्रा करने के बाद से वे लोग खादी के अलावा कोई दूसरा कपड़ा नहीं पहनते। सभी की इच्छा है कि समाज से व्यसन, छूआछूत और कन्या भ्रूण हत्या बंद हो,लेकिन वे इस बात से खासे दुखी भी है गांधीजी का उपयोग लोग राजनीति और नाम कमाने के लिए किया जा रहा है। उनके सिद्धांत गांधीगीरि में तब्दील हो गए हैं।