April 30, 2011

दांडी की राह पर साकार होता बापू का सपना







 

दांडी सफरनामा

 

नवसारी से समरेन्द्र शर्मा

 

महात्मा गांधी की दांडी यात्रा की राह नवसारी पर मानव मंदिर ट्रस्ट ने बापू के सपनों का भारत बनाने देश के सामने एक मिसाल पेश की है। संस्था ने अंधे, गूंगे-बहरे और मानसिक विकलांग बच्चों की सेवा का बीडा उठाया है। यहां पिछले 40 सालों से ऐसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से लेकर उनके खाने-पीने, रहने का इंतजाम है। संस्था के अध्यक्ष और वरिष्ठ गांधीवादी महेश कोठारी का मानना है कि आज भले ही गांधीजी लोगों को दिखाई नहीं दे रहे है, लेकिन वे आज भी हमारे बीच है। उन्होंने उम्मीद जताई कि लगे रहो मुन्नाभाई फिल्म की गांधीगीरि ने ही बापू के प्रति जागृति लाई है।

महात्मा गांधी ने दांडी यात्रा के दौरान सूरत, डिंडौरी, वांज, धमन के बाद नवसारी को यात्रा को आखिरी दिनों में अपना पड़ाव बनाया था। यहां से कलाडी और दांडी की यात्रा पूरी की थी। नवसारी से दांडी का फासला लभभग 13 मील का है। साबरमती से सूरत तक की दूरी तय करने के दौरान कई ऐसे स्थान भी देखने को मिले,जहां बापू का कोई नामलेवा नजर नहीं आया। नवसारी पहुंचने पर मानव मंदिर ट्रस्ट की गतिविधियों को देखकर लगा कि आज भी गांधीजी के संदेशों और आदर्शों का पालन करते हुए समाज में रोशनी लाने की कोशिश की जा रही है। 

 

मानव मंदिर ट्रस्ट की 1970 में स्थापना की गई। संस्था के अध्यक्ष कोठारी दादा बताते हैं कि यहां लगभग 550 गूंगे-बहरे, अंधे और अपाहिज बच्चों को रखा गया है। ये ऐसे बच्चे हैं, जिन्हें समाज और घर परिवार वाले तक अपने साथ रखना पसंद नहीं करते। ऐसे गरीब और आदिवासी बच्चों के लालन-पालन के लिए नवसारी में दो तथा यहां से 110 किमी दूर दांड में आवासीय स्कूल चलाए जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि अपने बड़े भाई प्रवीण भाई कोठारी की असमय मौत के बाद इस संस्था को शुरू किया। उनका उद्देश्य था कि समाज के ऐसे वर्ग की सेवा करना, जिसे तिरस्कार की नजर से देखा जाता है। महात्मा गांधी भी ऐसे लोगों की सेवा करने को ही असली सेवा मानते थे। यहां के बच्चों की दिनचर्या योग से शुरू होती है। स्नान के बाद प्रार्थना, नाश्ता और पढ़ाई-लिखाई का काम होता है। यहां बच्चों को औद्योगिक प्रशिक्षण भी दिए जाते हैं, ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें।

संस्था को उसकी सेवा के लिए साल 2008 में राजीव गांधी मानव सेवा अवार्ड से नवाजा गया था। एक पहली ऐसी स्वयं सेवी संस्था है, जिसे अपने उल्लेखनीय कार्यों के लिेए यह पुरस्कार दिया गया। वरिष्ठ गांधीवादी नेता आज के माहौल और बापू की बातों से दूर होते समाज को देखकर दुखी है। इसके बावजूद वे मानते हैं कि गांधी कल, आज और कल भी प्रस्तुत हैं। भले ही अभी अंधकार दिखाई दे रहा है, लेकिन उजाला आएगा। देश के नौजवान उठ रहा है। हो सकता है कि गांधीजी का ठिकाना भारत न हो, लेकिन दुनिया में उनके विचारों को आगे बढ़ाया जा रहा है। गांधी तो एक विचार है, जिसको जरूरत लग रही है, वो उन्हें अपना रहे हैं।

 दादा कहते हैं कि उन्हें गांधीगीरि शब्द अच्छा नहीं लगता। लेकिन इस फिल्म ने गांधी को लोकप्रिय बनाने का काम तो बखूबी किया है। इसके बाद लोग गांधी को समझने और जानने के लिए मजबूर हुए हैं। खासतौर पर युवाओं ने बापू के पदचिंहों पर चलने में दिलचस्पी दिखाई है। दरअसल, देश का युवा मौजूदा गांधीवादियों के चेलों से काफी नाराज है। वे युवाओं को गांधी के समीप नहीं आने देना चाहते। गांधीवादियों को अपनी मानसिकता बदलनी होगी, तभी युवाओं की नाराजगी दूर की जा सकती है।

 

 

April 25, 2011

हीरे के सामने फीकी दांडी के नगिने की चमक


दांडी सफरनामा

 

सूरत से समरेन्द्र शर्मा

गुजरात के प्रमुख औद्योगिक शहर और हीरा कारोबार के लिए मशहूर सूरत में देश और दांडी मार्च के नगिने महात्मा गांधी की चमक फीकी पड़ गई है। नमक आंदोलन के जरिए देश को आजादी दिलाने और दुनिया को सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले बापू के इस सूबे में आज खुशहाली, संपन्नता और ऐश्वर्य तो है, लेकिन सूरत में दूर-दूर तक गांधी का नामलेवा नजर नहीं आता।


 अंग्रेजों के खिलाफ गांधीजी के नमक आंदोलन में दांडी पहुंचने से पहले सूरत को अपना पडाव बनाया था। इस शहर और इसके आसपास के गांवों से गुजरते हुए गांधी से जुड़ी यादों को तलाशने की कोशिश की, लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नजर नहीं आया। इससे लगे गांव छपरभाट्ठा और डिंडौली के स्कूलों में लगे शिलालेखों में दांडी यात्रा का जिक्र देखने को मिला। दांडी यात्रा के एक महत्वपूर्ण पडाव सूरत में हम केवल शहर और प्रदेश के वैभव से रू-ब-रू हुए। वैसे तो सूरत की ढेरों खासियत है। यहां देश का सबसे बड़ा कांडला पोर्ट बंदरगाह है। जो साल 2001 में भूकंप की भयंकर तबाही के बावजूद फैलाद की तरह खड़ा हुआ है। यहीं हीरे की जगमगाहट को चमकाकर पिरोया जाता है। हीरे तराशने की कला यहां आकर परवान चढ़ती है। जानकारों के मुताबिक यहां हीरे का लगभग 6 हजार करोड़ का करोबार होता है। इतना ही नहीं दुनिया के 11 चुनिंदा हीरों में तकरीबन 9 को यहां से तराशकर भेजा जाता है। इस व्यापार से लगभग 15 लाख लोगों को रोजगार मिलता है। इसके अलावा यह नगरी साक्षी है टेक्सटाइल्स मिलों की। जहां इससे करीब दस लाख से ज्यादा लोगों की जीविका चलती है और सलाना पचास हजार करोड़ से ज्यादा का टर्न ओवर हैं।

कमरतोड़ मेहनत करने वाले गुजराती जायके के भी शौकीन है। यही वजह है कि सूरत की घारी का स्वाद जेहन से दूर नहीं होता। भावनगर का गांठिया और ढोकला भी यहां की खास पहचान है। शिक्षा-दीक्षा, रोजगार, संपन्नता और विकास से परे सूरत की तमाम खूबियों के बावजूद यहां से बापू के निशान पूरी तरह मिट चुके हैं। ऐसा लगता है कि मानो गांधीजी का इस शहर से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। जबकि यह बापू की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनो रही है। दांडी के लिए कूच करने से पहले हमने सूरत में पूरा का पूरा एक दिन बिताया। इस दौरान लंबी-चौड़ी सड़कों, गली-कूचे से लेकर लगभग सभी बड़े रास्तों पर पड़ने वाले ओवर ब्रिज में घूम-घूमकर बापू के पदचिंहों को तलाशने की कोशिश की, लेकिन हमें हर जगह निराशा ही हाथ लगी। आश्चर्य की बात यह भी थी कि अधिकांश लोग इस बात से भी अनभिज्ञ थे कि दांडी यात्रा के दौरान बापू ने शहर को अपना मुकाम बनाया था। सूरत से पहले छपराभाट्ठा में, जहां गांधीजी ने दोपहर को विश्राम किया था, वहां हमें केवल इतना पता चला कि गांधी सूरत के डिंडौली में रूके थे और उसी रास्ते से होते हुए दांडी गए थे। छपराभाट्ठा के स्कूल में जहां बापू रूके थे, वहां पर दीवार पर केवल एक पत्थर लगा हुआ दिखाई दिया। यहां जिस घर में गांधीजी रूके थे, वहां जाकर देखने पर मालूम हुआ कि फिलहाल घर में रखरखाव का काम चल रहा है और उस वक्त वहां कोई भी मौजूद नहीं था। डिंडौली में छपराभाट्ठा की तरह ही एक शिलालेख बापू की दांडी यात्रा का गवाही दे रहा था।

 

 

April 22, 2011

हैलो...मैं गांधी बोल रहा हूं...हैलो हैलो हैलो...








दांडी सफरनामा

बहरूच-अंकलेश्वर से समरेन्द्र शर्मा






हैलो...हैलो...हैलो...मैं गांधी बोल रहा हूं...दूसरी तरफ से...हैलो...आपकी आवाज नहीं मिल रही है। दांडी मार्ग पर तामझाम और अनाप-शनाप खर्च को देखकर लगता है कि गांधीजी अपने सादगी पसंद स्वभाव को याद दिलाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं, लेकिन शायद उनकी आवाज लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। दरअसल, गांधीजी ने आखिरी दिनों में कहा था कि इस दुनिया से अलविदा होने के बाद मेरी बातों और मेरे किए को मिटा देना, हो सके तो मेरे कर्मों को याद रखना, लेकिन यहां ठीक उलटा हो रहा है और गांधीजी की सादगी और सदाचार के प्रचार-प्रसार में ही लाखों-करोड़ों रूपए फूंके जा रहे हैं। दांडी की पगड्डियों ने नेशनल हाईवे का रूप ले लिया है और उनकी याद दिलाने वाले स्मारकों का स्वरूप ऐसा बदल गया है कि वहां केवल धूल खाती तस्वीरें और उजाड़ भवन नजर आते हैं। आश्चर्य होगा कि सरकार ने गांधीजी को सहेजने एक हजार आठ सौ करोड़ से भी अधिक पैसा खर्च किया है।

आओ गांधी टोपी और सूत की माला पहनकर गांधी की पगड्डियों पर चले हम। दांडी कूच के लिए निकलते समय कुछ इस तरह का जज्बा हर भारतीय के जेहन में रहता है। ऐसा इरादा लेकर यात्रा करने वालों को रास्तों पर तामझाम और लोगों की गांधी के प्रति कम होती दिलचस्पी देखकर निराशा हो सकती है। हमने अभी तक दांडी का आधा सफर पूरा कर लिया है। इस दौरान हम बोरअवी, बोरसद, नापा, कंकापुरा, जम्बूसर और समनी जैसे गांवों को पार किया, जहां गांधीजी ठहरे थे और लोगों को संबोधित किया था। ऐसे हर गांवों में गांधीजी की यादों को सहेजने के लिए लाखों-करोड़ों रूपए खर्च किए गए हैं। पूरे रास्ते को नेशनल हाईवे 228 घोषित किया गया है। साबरमती से दांडी तक गांधीजी की पगड्डियों को नेशनल हाईवे बनाने के लिए एक हजार आठ सौ करोड़ रूपए खर्च किए गए हैं। इसके अलावा स्मारकों और भवनों के लिए सौ करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया था। मार्ग के कई गांवों में गांधी भवन या आश्रम का निर्माण कार्य पूरा भी हो गया है, लेकिन इसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। अधिकांश स्थान एक चौकीदार या गांव वालों के भरोसे है। इन स्थानों पर बापू का चरखा, तस्वीर और उनके द्वारा उपयोग की गई वस्तुएं धूल खाती पड़ी हुई है।

गांधी स्मारकों की हालात देखकर कहा जा सकता है कि बापू के प्रति गांवों वालों की दिलचस्पी भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। हर गांवों में दांडी यात्रियों का सम्मान तो भरपूर किया जाता है, लेकिन यह सिर्फ स्वागत-सत्कार तक सीमित रहता है। गांधीजी के बारे में पूछने या उनकी बातों से किसी को बहुत ज्यादा लगाव नहीं देखने को मिलता है। दरअसल सरकारें भी गांधीजी को ब्रांड एम्बेसडर के रूप में इस्तेमाल करने में लगी है। ऐसे में गांव के लोगों और बच्चों के लिए गांधीजी छुट्टियों तक सिमट गए हैं।

बापू के लिए हजारों करोड़ रूपए के खर्च करने के प्रस्ताव का उनके परपोते और पूर्व राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने भी काफी विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि जिस पर चलकर महात्मा गांधी और उनके 78 सहयात्रियों ने नमक सत्याग्रह किया था जिसने भारत की ब्रिटिश सरकार ही नहीं पूरी दुनिया की आत्मा को झकझोर दिया था। उस मार्ग को आ जादी के आंदोलन की धरोहर बनाकर स्थायी महत्व देने का प्रस्ताव गांधीजी के विचार और जीवन से बिल्कुल असंगत होगा। खासकर ऐसे वक्त जब आधे से ज्यादा भारत में समस्याओं की भरमार है। तब ऐसी चीजों पर इतना पैसा खर्च करना बिल्कुल अनुपातविहीन और असंगत होगा। उन्होंने यह भी कहा था कि एक सादा सा स्मारक बने जिस पर दांडी कूच करने वालों के नाम खुदे हों। लेकिन सरकारों को उनका प्रस्ताव पसंद नहीं आया। और पूरे रास्ते को हेरिटेज रूट का रूप दिया गया है।

रास्ते पर चलते हुए ऐसा लगता है कि मानो हमने बापू की बातों और किए के अलावा कर्मों को भी भूला दिया है। जबकि गांधीजी ने अपने कर्मों को याद रखने की सलाह दी थी। दांडी यात्रा के दौरान गांधीजी ने जिन तकलीफों और संघर्ष के साथ मार्च किया था, उसके निशान भी धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। जबकि उन्होंने तो यात्रा के लिए बकायदा कई नियम भी बनाए थे, जिसमें रूकने से लेकर खाने-पीने तक के लिए पक्के नियम थे। लेकिन इन 81 सालों में सब-कुछ बदल सा गया है। ऐसे लगता है मानो गांधीजी अपनी सादगी की बातें लोगों को याद दिलाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज तामझाम और राजनेताओं के श्रेय लेने की होड में दब सी गई है।

April 21, 2011

बापू की राह पर नशे का कोराबार !


दांडी सफरनामा

बोरसद-रास से समरेन्द्र शर्मा

शीर्षक पढ़कर चौंकना लाजिमी है। आपको लग रहा होगा कि दांडी यात्रा का नशा और गांधी से क्या संबंध हो सकता है। बल्कि, गांधीजी ने तो आजादी की लड़ाई के साथ व्यसनों और सामाजिक बुराईयों के खिलाफ भी अभियान चलाया था। वे काफी हद तक अपनी इस मुहिम में सफल भी हुए थे। यही वजह है कि दांडी यात्रा के रास्ते पर पड़ने वाले कई गांवों में आज भी चाय तक को बुराई की नजर से देखा जाता है और पूरे गुजरात में शराबबंदी है। लेकिन हम जो कह रहे हैं, वह बात भी उतनी ही सही है, जितनी की बाकी। दरअसल, बोरसद-रास और कंकापुर के रास्ते पर हमने केवल तंबाकू की फसल लहलहाती हुई देखी। इतना ही नहीं पूरे देश के लिए तंबाकू की आपूर्ति यहीं से होती है।


महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइस्टीन का कथन याद आता है। जिसमें उन्होंने कहा था कि दुनिया में शराब के बाद कोई दूसरा बड़ा नशा है, तो वह महात्मा गांधी है। दांडी यात्रा पर निकलने से पहले जब मैंने गांधी को पढ़ना शुरू किया और मार्ग पर लोगों से मुलाकात की तो मुझे भी आइंस्टीन का कथन काफी हद सही लगा। गांधीजी को जानने और समझने का वाकई नशा सा चढ़ने लगा। मुझे यह भी अहसास हुआ कि साबरमती से यात्रा के हर पड़ाव पर केवल गांधी का ही नशा लोगों के सिर चढ़कर बोलता है। लेकिन बोरसद-रास और कंकापुरा के सफर के दौरान सैकड़ों-हजारों एकड़ में फैले तंबाकू की खेती देखकर अचरज हुआ। हो सकता है कि यहां के लोगों के लिए यह सामान्य बात हो और यह उनका पेशा मात्र हो, लेकिन मेरा आश्चर्य इस बात पर था कि जिस मार्ग के लोग 81 साल पहले के गांधी के चाय के बहिष्कार के आग्रह का आज भी पालन कर रहे हैं, वे कैसे तंबाकू के नशे के सरताज बने हुए हैं।

बापू की इस राह पर चलते हुए मेरे दिमाग में ऐसा कोई ख्याल भी नहीं आया था कि यहां नशे का इतना बड़ा कारोबार चलता होगा। सच कहूं तो यह जानने से पहले हरी-भरी फसलों को देखकर मैं काफी ललचा रहा था। और तो और काफी समय तक इनकी तस्वीर उतारने में लगा रहा। इस बीच खेत में काम करने वाले लोगों से बात हुई, तो पता चला कि इन हरियाली में तो गांधी से भी बड़ा नशा छिपा हुआ है। जिसके चलते वे इसे छोड़ नहीं पा रहे हैं। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले थोड़ी और तहकीकात करने पर पता चला कि इन गांवों के लोग स्वभाव से भोले-भाले और सरल हैं। गांवों के छोटे और गरीब किसानों के खेतों पर नशे का कारोबार वे नहीं, बल्कि बड़े-बड़े ठेकेदार कर रहे हैं। किसानों से खेत किराए पर लेकर उनमें नशे की फसल काटी जी रही है।

दरअसल, किसानों की मजबूरी यह है कि खेती-किसान से पेट पालना तक मुश्किल हो रहा है, फिर बाकी की तो बात ही छोड़िए। ऐसे में वे खेत को किराए पर देकर और वहां मजदूरी करके थोड़ा ज्यादा मुनाफा कमाने की लालच से ऐसा कर रहे हैं। किसानों की यह गलती उतनी बड़ी नहीं है, जितनी उन ठेकेदारों की है, जो पैसा और नाम दोनों कमा रहे हैं और बदनामी किसानों के खाते में डाल रहे हैं। जानकार बताते हैं कि इस इलाके में सालों से तंबाकू की खेती हो रही है। धीरे-धीरे यह कारोबार कई सौ करोड़ और सैकड़ों एकड़ तक में पहुंच गया है। पूरे देश में बीड़ी बनाने की तंबाकू यहीं से जाती है। अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने बड़े हिस्से और पैमाने पर यह व्यवसाय फल-फूल रहा है। जबकि इस देश की धरती के बारे में कहा जाता है कि मेरे देश की धरती सोना उगले, हीरे-मोती। लेकिन हम ऐसी धरती से क्या-क्या उगलवा रहे हैं, इसकी कल्पना शायद यहां के कवियों और महापुरूषों ने की होगी।



खारा है तो क्या हुआ...

गांधी ने कंकापुरा से दांडी के लिए अगले पड़ाव का सफर महिसागर तट से पूरा किया था। नाव से 9 किमी की यात्रा करने के बाद उन्होंने करेली में रात्रि विश्राम किया था। लेकिन जब हम यहां पहुंचे, तो परिस्थितियां बिलकुल अलग थी। नाव तो बहुत दूर रास्ता बताने के लिए भी कोई नजर नहीं आ रहा था। नदी ने तो मानो गांधीजी को अपने आप में उतारा लिया था और नमक की चादर ही ओढ़ ली थी। नदी में पानी की एक बूंद का नामोनिशान नहीं था। नदी ने जिस मिठास के साथ खारे नमक को अपने सीने से लगाया था, उसे देखकर गांधीजी का एक भाषण याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि मां कितनी भी कुरूप हो कोई व्यक्ति सुंदर महिला को अपनी मां नहीं बनाता। वैसे ही भारत मां के लिए गुलामी की बेड़ियों से आजाद करने वाला खारा नमक भी उतना ही प्यारा मीठा है।

April 18, 2011

बापू के मैनेजमेंट गुरू ने दिखाई दांडी-सहकारिता की राह




दांडी सफरनामा

आणंद से समरेन्द्र शर्मा

बापू की दांडी यात्रा के साथ-साथ गुजरात के आणंद जिले ने सहकारिकता के क्षेत्र में पूरी दुनिया के सामने मिसाल पेश की है। सरदार वल्लभ भाई पटेल त्रिभुवन पटेल और मोरारजी देसाई को सहकारिकता का जनक माना जाता है। उनके बेहतर प्रबंधन और किसनों को एकजुट करने की पहल की बदौलत गुजरात का दुग्ध संघ नंबर वन है। ढ़ाई सौ लीटर दूध इकट्ठा कर कारोबार शुरू करने वाले इस सोसायटी के जरिए 1.8 मीलियन लीटर दूध एकत्रित किया जा रहा है। जानकारों के मुताबिक दांडी यात्रा से पहले सरदार पटेल की किसानों को एकजुट करने की मुहिम के कारण इसे अपेक्षा से अधिक सफलता मिली। बापू ने भी कहा था कि सरदार न होता तो मेरा सत्याग्रह सफल नहीं होता। नमक सत्याग्रह की घोषणा से फिरंगी हुकूमत बापू के बजाए सरदार से घबराई हुई थी। यही वजह है कि अंग्रेजों ने आंदोलन के पांच दिन पहले ही सरदार को गिरफ्तार कर लिया था।

गुजरात के आणंद को आजादी और मूलभूत अधिकारों की लड़ाई में दोहरा श्रेय जाता है। इस शहर ने आजादी की लड़ाई, नमक सत्याग्रह के लिए तो अपना योगदान दिया, साथ किसानों और गरीबों को उनकी मेहनत का मुनाफा दिलाने के कठिन संघर्ष किया। यह कहें कि दांडी यात्रा की सफलता औऱ आणंद के विकास में सहकारिता आंदोलन की अहम भूमिका थी, तो गलत नहीं होगा। आणंद से लगे सरदार पटेल की कर्मभूमि करमसद और बारदोली से इस आंदोलन की नींव पड़ी। इलाके और आसपास के किसानों ने सरदार को अपनी समस्याएं बताई, तो उन्होंने पूरे क्षेत्र का दौरा किया। इससे किसानों और गांव के लोगों से सीधा जुड़ाव हुआ। किसानों से सरदार का सीधा संपर्क होने के कारण ही गांधीजी ने नमक सत्याग्रह की पूरी बागडोर उन्हें सौंपी। इसकी पूरी योजना और मार्ग का निर्धारण पटेल ने किया था। यात्रा की सफलता के लिए सरदार मार्च से पहले गांवों के दौरे पर निकल गए थे। सरदार की इस रणनीति से घबराए अंग्रेजों ने उन्हें 7 मार्च को गिरफ्तार कर लिया, ताकि गांधीजी का मनोबल टूट जाए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि तब तक आंदोलन ने गति पकड़ ली थी।

गांधीजी ने अपने आंदोलन की सफलता का श्रेय पटेल को देते हुए कहा था कि ये मेरा सरदार है। ये नहीं होते तो शायद मेरा आंदोलन सफल नहीं हो पाता। उनकी इस बात को प्रमाण आणंद में देखने को मिलता है। जहां उन्होंने किसानों को एकजुट कर ऐसी संस्था की नींव रखी,जिसका देश-दुनिया में बड़ा नाम है। सरदार पटेल ने किसानों को सुझाव दिया था कि बिचौलिए और हुकूमत उनके उत्पाद का मूल्य नहीं देती है। उन्हे उत्पाद देना बंद कर दो। भले इससे उन्हें नुकसान उठाना पड़े, लेकिन किसानों और उत्पादकों को उनका वास्तविक मूल्य मिलना ही चाहिए। उनके इस सूत्र ने मैंनेजमेंट की ऐसी मिसाल पेश की, जिसे सिद्धांत मानकर बड़े- बड़े मैंनेजमेंट गुरू काम कर रहे हैं।


बाद में सरदार पटेल, त्रिभुवन के पटेल, मोरारजी देसाई के प्रयासों से 1945 के आसपास इसे संगठित कारोबार बनाया गया। 100-200 किसानों से शुरू इस सहकारी संस्था ने विशाल रूप ले लिया है। अकेले आणंद जिले में 15 हजार 322 ग्रामीण सोसायटियां हैं और इससे 6 लाख से अधिक किसान जुड़े हैं। जबकि पूरे गुजरात में 30 लाख से अधिक किसानों की मेहनत से लाखों टन दूध का उत्पादन किया जा रहा है। सरदार को देशभर में लौह पुरूष के नाम से जाना जाता है, लेकिन उन्हें यहां मिल्क मैन और बड़ा मैनेजमेंट गुरू के रूप में देखा जाता है। दुग्ध संघ और इसके उत्पादन से जुड़े बड़े-बड़े लोगों का कहना है कि आज के मैनेजमेंट के डिग्रीधारी उनके इस सूत्र के आधार पर काम कर रहे हैं।

April 13, 2011

नीरव अंधकार में गांवों को चुरा लिया शहरों ने !


दांडी सफरनामा

नादियाड से समरेन्द्र शर्मा

दांडी यात्रा से परे एक दूसरे आंदोलन के समय जब कराडी स्थित झोपड़ी से गांधीजी को आधी रात गिरफ्तार किया गया था, तो उनकी सहयोगी मीराबेन ने कहा था कि अंग्रेज रात के नीरव अंधकार में चोरों की भांति आए और गांधीजी को चुरा कर ले गए। उनका यह वक्तव्य उजड़ते गांवों पर सटीक बैठता है। लगता है कि दांडी मार्ग के गांवों से झोपडि़यों पर पड़ती गुनगुनी धूप, लहलहाती फसल, खेती-किसानी में जुटे किसान, खेतों से लौटती महिलाएं, नदियों की शीतलता, पगड्डी और चौपाल को शहरीकरण की अंधाधुंध कोशिशों ने चुरा लिया है। इस रास्ते पर एक-दुक्का स्थानों को छोड़कर अधिकांश जगहों पर बड़े-बड़े इमारत, डामर-क्रांकीट की सड़के और हमेशा सबसे आगे रहने का तनाव नजर आता है।


अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से दांडी के लिए निकली हमारी यात्रा ने चार दिनों में चंदोला तलाब, असलाली, बरेजा, नवागाम, वसना, मतर, दमन, नादियाड और बोरिअवी तक का फासला पूरा किया। लगभग 50 मील के इस सफर के दौरान रोजाना नए अनुभव हुए और नए लोगों से मुलाकात हुए। लगभग हर जगह इलाके के बारे में पूछने पर पता चला कि गांधी की दांडी यात्रा से लेकर अब तक गांवों में जमीन आसमान का फर्क आया है। यह खुशी की बात है कि बीते 81 सालों में गांवों की अच्छी खासी तरक्की हुई, लेकिन गांवों की कई बूढ़ी आंखों में तरक्की के सफर की कसक भी देखने को मिली। बुजुर्ग मानते हैं कि विकास और शहरीकरण की अंधाधुंध रफ्तार ने गांवों को खत्म सा कर दिया है।


नवागाम से आगे बढ़ने पर हमें वसना और मतर के बीच के सफर में ग्रामीण परिवेश का थोड़ा बहुक आभास हुआ है। हरी-भरी फसलों के बीच झोपड़ी पर पड़ती सूरज की किरण, झोपड़ियों में चूल्हा-चौका करती महिलाएं, अपनी मस्ती में कूदते-फांदते बच्चे, खेतों से लौटते किसानों ने गांव के माहौल का अहसास कराया। वसना और मतर के बीच एक छोटी सी नदी, उसके शीतल और साफ-सुथरे पानी और पैरों तले खिसकती रेत की गुदगुदी ने मन को तसल्ली दी। लेकिन यहां से आगे बढ़ने के बाद ऐसे दृश्य तो केवल नाम मात्र के लिए दिखाई दिए। जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ने लगी, ऐसा लगा मानो खेती-किसानी और झोपड़ियों की जमीन को बड़ी-बड़ी इमारतों-भवनों ने चुरा कर आसमान की ऊंचाई तक ले गए हों। मुंह चिढ़ाते इन भवनों को देखकर लगता मानो कि वे यही सवाल कर रहे हों कि अब कैसे लौटोंगे अपने बीते हुए दिनों की ओर। कहने के गांवों को पार करते हुए नादियाड पहुंचे तो हमारी तलाश और भी बेईमानी लगने लगी। शहर में प्रवेश करते ही समझ आ गया कि शायद हम गांवों को ढ़ूढ़ते रह जाएंगे।

यहां की गगनचुंबी इमारते और कांप्लेक्सों ने सरदार वल्लभ भाई पटेल की जन्म स्थली को भी अपने आगोश कुछ इस तरह जकड़ लिया है कि पता ही चलता है कि इस जगह पर भी कुछ खास है। गनीमत है कि उनके घर के ठीक सामने बापू की प्रतिमा और सरदार की फोटो के साथ सूचना लगा दी गई है। ताकि आने-जाने वाले लोगों को इसकी जानकारी मिल सके।
अपने जमाने का सरदार पटेल यह बंगला छोटे-मोटे मकानों के बीच भी दबा-कुचला सा भाव लिए नजर आता है। इस घर में रहने वाला भी कोई नहीं है। सरदार पटेल के रिश्तेदार अमेरिका के न्यू जर्सी शहर में बस गए हैं। 6 महीने तो यह बंगला पूरी तरह से खाली रहता है। घर की चाबी पड़ोसियों के पास रहती है। कोई आ जाए, तो पड़ोसियों से चाबी लेकर वह सरदार की जन्मस्थली को देख सकता है। बाकी के 6 महीने सरदार पटेल की बहू शॉरमिस्टा यहां रहती है। सरदार की जन्मस्थली देखने हम पहुंचे तो उन्होंने बताया कि सरदार के जन्मदिवस और पुण्यतिथि पर नेता और अधिकारी आते हैं। इसके अलावा विशेष आयोजन होने पर ही यहां लोगों की भीड़ जुटती है।


नादियाड शहर का सरदार पटेल के अलावा गांधीजी से भी गहरा नाता है। उन्होंने दांडी यात्रा के दौरान यहां रात्रि विश्राम के अलावा सभा को भी संबोधित किया था। वे यहां के 180 साल पुराने संतराम मंदिर में रूके थे। आलीशन और भव्य मंदिर के एक कोने में गांधीजी लकड़ी के भवन की पहली मंजिल की खिड़की से सभा ली थी। यह स्थान आज भी सुरिक्षत है। हालांकि लकड़ी के भवन को तोड़कर उसी डिजाइन में सीमेंट का भवन बनाया गया है। गांधीजी के कमरे में चित्रों के सहारे उनसे जुड़ी यादों को सहेजने की कोशिश की गई है। नादियाड गोवर्धनराम और मणिलाल नथूभाई जैसे बड़े साहित्यकारों का भी नगर है। गांधीजी ने भी दांडी मार्च के दौरान इन्हीं का नाम लेते हुए आंदोलन के लिए सहयोग मांगा था और कहा कि क्या उन्हें विद्वानों की विरासत देखने का मिलेगी।