February 25, 2008

कहां से कहां ... तक

एक-दो रोज से काफी फ़ुर्सत में हूं। इसके बावजूद लिखने -पढ़ने जैसा कुछ नहीं हो रहा है। एकदम खाली होना भी निरस हो जाता है। दरअसल एक नौकरी छोड़कर दूसरी ज्वाईन करने की तैयारी है। इस वजह से भी दिमाग में तरह-तरह की उलझनें है और कुछ दूसरी परेशानी भी है।

खैर एक दो दिन की बात है,सोचकर मन को तसल्ली दे रहा हूं। अधिकांश समय घर में रहना हो रहा है। लगता था कि घर में आराम ही आराम होगा लेकिन यहां तो एक कप चाय के लिए भी जूझना पड़ता है। मुंह से चाय का नाम सुनकर बीवी की आंखे लाल हो जाती है और दिनभर के चाय का बही खाता खुल जाता है। रोज अलग-अलग बहाने और तानों से चाय मिल जाए तो लगता है कि जंग जीत गया। चाय के लिए कई बार किसी के आने का इंतजार भी करना पड़ता है। कई दफ़े तो फोन कर किसी को बुलाने का जोखिम भी लेता हूं। खैर सभी शादीशुदा लोगों को घर में इस तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता होगा। मेरे जैसे लोगों के लिए यह कोई नई बात नहीं है।

बीते रविवार को मैंने एक कप चाय के लिए बैठे-बिठाए एक नई मुसीबत मोल ले ली। बीवी ने चाय के बदले जगार घूमाने की शर्त रख दी। तलब थी तो आगे-पीछे का सोचे बिना सर हिला दिया। चाय खत्म होने के बाद लगा कि कंगाली में आटा गिला होने वाला है। एक तो बेरोजगार और अखबार की नौकरी में एक माह की पगार नहीं मिली सो अलग।

मर्द की जुबान का दंभ भरते हुए मेला जाने तैयार हुआ,लेकिन वहां बीवी ने तो कुछ खास परेशानी में नहीं डाला अलबत्ता मेले के माहौल से जरूर प्राब्लम हुई। स्कूल-कालेज में पढ़ने वाली लड़कियों और उनकी अम्माओं का कहर देखकर मेले से जी भर गया। मेले-ठेले में भ्रमण का शौक ज्यादा नहीं है। गए भी तो किसी स्टाल में चाय और दोस्तों के साथ देश-विदेश की चर्चा से मेला घूमना हो जाता था। इस बार बीवी के साथ गया था,तो दोस्ती-यारी केवल हाय-हैलो तक ही रही। मेला घूमने के लिहाज से इधर-उधर नजर दौड़या ,तो लगा कि अनजाने देश के किसी माल या फिर किसी फ़ैशन शो तो नहीं पहुंच गया।

एक जगह और एक साथ लडकियों की नीची खिसकती जींस और ऊपर चढ़ती टी-शर्ट देखकर अजीब सा लगने लगा। इतना ही नहीं महिलाओं के महीन सलवार कुर्ता और साड़ी के बीच झांकते भीतरी कपड़ों का नजारा भी समझ नहीं आया। पहले मुझे लगा कि यह फ़ैशन का नया चलन होगा,लेकिन बात हजम नहीं हो रही थी। क्योकि इसमें फ़ैशन कम शरीर ज्यादा दिख रहा था। हो सकता है कि मेरी बातें कईयों को पुरानी या दकियानूसी लगे। मैं फ़ैशन को कोसना भी नहीं चाहता,लेकिन सोचने समझने को उस समय विवश हुआ जब उन कुछ मनचलों पर नजर पड़ी जो मेला नहीं बल्कि लड़कियों और महिलाओं को ही घूर रहे थे। कई तरह के कमेंट भी सुनने मिले। ऐसी ज्यादातर लड़कियों तथा महिलाओं के साथ उनका पूरा परिवार भी था। ऐसे में अटपटा नहीं लगना अस्वाभाविक सा ही है। मुझे लगता है कि इस गंभीर विषय पर हम सभी को विचार करने की जरूरत है। जब तेजी से गांव से लेकर शहरी,मेट्रो संस्कृति और सभ्य समाज में छेड़खानी-बलात्कार,शोषण की घटनाएं बढ़ रही हैं।

February 21, 2008

छत्तीसगढ़ भी कत्लेआम के लिए तैयार...

छत्तीसगढ़ भी अब कत्लेआम के लिए तैयार है। यहां भी रोजाना सैकड़ों-हजारों की खून की होली खेली जाएगी और कईयों के सिर धड़ से अलग होंगे। ऐसा कोई और नही,बल्कि छत्तीसगढ़ की सरकार करने जा रही है। राज्य सरकार ने छत्तीसगढ़(रायपुर,बिलासपुर,भिलाई) में कत्लखाना खोलने केन्द्र को प्रस्ताव भेजा है। मंजूरी के बाद यहां भी बेगुनाह जानवरों की हत्या की जाएगी।

पशुओं की हत्या के खिलाफ अब कोई हल्ला नहीं मचा सकेगा। ऐसा करने के लिए राज्य शासन ने पूरी तैयारी कर ली है। अब तो केवल केन्द्र सरकार के एक इशारे का इंतजार है। अपने आप को हिंदूवादी संगठन कहने वाली भाजपा शायद भूल गई है कि हिन्दू धर्म में जीव हत्या को सबसे बड़ा पाप माना जाता है। धर्म में गौ(गाय)को माता का दर्जा दिया गया है। पता नहीं किस धर्म और संस्कृति के तहत बेजुबानों की हत्या के लिए कत्लखाना खोलने की तैयारी है।

गौ और अन्य पशुओं की हत्या का विरोध करने वाले हिन्दूवादी संगठन अब खुद उसी रास्ते में चलने के लिए कदम बढ़ा रहे हैं। लगता है कि प्रदेश में सरकार ने शायद कत्लखाने के बारे में ही सोचकर आदिवासियों को गाय बांटने की योजना शुरू की थी।इतना ही नहीं कत्लखाने के लिए जमीन तलाश ली गई है और करोड़ों का बजट भी स्वीकृत कर दिया गया है। करोड़ों की अत्याधुनिक मशीनें स्थापित किए जाएंगे,ताकि पशुओं को मशीनों से काटा जा सके। यहां से देश-विदेश के गोश्त प्रेमियों को ताजा व ठंड़ा मांस परोसा जाएगा। सरकार की दलील है कि कत्लखाना खुलने से खुलेआम पशुओं की कटाई पर रोक लगेगी। वाकई इस तर्क का तो कोई काट नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने जानवरों की खुलेआम हत्या और बिक्री के लिए कानून बनाया है। लेकिन इसकी याद तो सरकारों को गांधीजी की जयंती और पुण्यतिथि को ही आती है। जोगी शासनकाल में भी कत्लखाना खोलने का प्रस्ताव बनाया गया था,लेकिन पशुप्रेमियों के विराध के कारण इसे टाल दिया गया था। नए प्रस्ताव पर अभी तक किसी ने सुध नहीं ली है।

February 20, 2008

ढाई हजार से परे लाखों का क्या ?

छत्तीसगढ़ में तेजी से औघोगिकरण-शहरीकरण हो रहा है। एक बार में सोचने पर लगता है कि प्रदेश का विकास हो रहा है,लेकिन एक जानकार अधिकारी के साथ अनौपचारिक चर्चा में कई खतरनाक जानकारियां भी सामने आई। उघोगों की बढ़ती संख्या के कारण पर्यावरणीय दुष्परिणाम के बारे में सभी जानते हैं। शहर के हर घर की छत उघोगों की काली धूल से पटी है। दूसरी तरफ इससे होने वाले मानवीय दुष्परिणामों के आकड़ों पर नजर डालें,तो आश्चर्य होगा कि रायपुर की दस-बारह लाख की आबादी में करीब एक लाख से अधिक लोग कैंसर,अस्थमा,फ़ेफ़ड़ों की बीमारी,त्वचा रोग से पीडि़त हैं। इसमें अधिकांश कम उम्र के लोग हैं। यह आंकड़े केवल सरकारी अस्तपाल मेकाहारा के हैं,जहां गरीब,मध्यम वर्ग के लोग इलाज कराते हैं। निजी अस्पतालों और बाम्बे जाकर कैंसर जैसी बीमारियों का इलाज कराने वाले लोगों को भी इसमें शामिल किया जाए तो आंकड़े दोगुने हो सकते हैं।

जानकारों का मानना है कि ये बीमारियां उन कुछ उघोगपतियों की ही देन है,जो खुलेआम नियमों की धज्जियां उड़ा रहे है और लाखों के जीवन से खिलवाड कर रहे हैं।उघोगों के प्रदूषण के बारे तमाम लोग यह भी जानते हैं कि इसने ओजोन परत तक को प्रभावित करना शुरू कर दिया है। खुलेआम काला धुआं छोड़ते उघोगों पर सरकार प्रशासन के लोग उन्हें देखकर भी अनदेखा कर रहे हैं। दैनिक छत्तीसगढ़ के संपादक सुनील कुमार ने पिछले दिनों विशेष संपादकीय में लिखा है कि सरकारी विज्ञापनों में भी राजधानी के प्रदूषण को किस तरह स्वीकार किया जा रहा है।

गृह निर्माण मण्डल ने नई राजधानी में शुरू की योजना का इश्तहार कुछ इस तरह जारी किया-नीरसता को तिलांजलि,प्रदूषण और अशांति भूले भी नहीं भटकेंगी इसकी गलियों में........अंग्रेजी में कुछ इस तरह लिखा गया है कि पाल्यूशन एंड नाएस लेफ़ट बिहाइंड वेयर दे बिलांग। मतलब साफ है कि इस बस्ती में बसने वालों प्रदूषण और शोर को वहीं छोड़ कर आओ जहां उनको रहना चाहिए। यहां पर हाउसिंग बोर्ड ढाई से पचास लाख तक दाम वाले ढाई हजार मकान बना रहा है। लेकिन इन ढाई हजार मकानों में रहने वाले लोगों से परे उन लाखों लोगों का क्या होगा। जाहिर है उनके हिस्से में वही कारखानों की काली धूल ही रहेगी।

February 14, 2008

समस्या से बड़ी है दुकानदारी...

छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा जगजाहिर है। दुनिया में सबसे अलग बस्तर की स्थिति संभवत काफी पीड़ादायक है लेकिन इस मुद्दे पर सरकार,विपक्ष,पत्रकारों,एनजीओ,मानवाधिकार संगठनों सभी की अपनी दुकानदारी है। तमाम लोग समस्या को सुलझाने के बजाए उलझाने में लगे हैं। यह मेरा व्यक्तिगत तौर पर कोई निकाला निष्कर्ष नहीं बल्कि समय-समय पर इसके प्रमाण मिले हैं।

वास्तव में कोई समस्या का निपटारा नहीं चाहता,जाहिर सी बात है कि नक्सलवाद चरम स्थिति पर पहुंच गया है। आम नागरिक की हैसियत से छत्तीसगढि़या के मन में यह सवाल आता ही होगा कि राज्य में कब एक जैसा (बस्तर और दूसरी जगह मे)कानून आएगा और कब आदिवासियों,जवानों-नक्सलियों के बीच संघर्ष खत्म होगा। लगातार खूनखराबे में बढ़ोत्तरी हो रही है और लोगों में दहशत का वातावरण बनते जा रहा है। बस्तर से राजधानी तक हिंसा के सामानों का अदान-प्रदान दिखाई देने लगा है,हालांकि नक्सलियों के सिटी नेटवर्क को ध्वस्त करने में पुलिस को काफी सफलता मिली है। दूसरी तरफ इसे खतरनाक संकेत मानने के पर्याप्त आधार हैं।

पुलिस ने हाल-फिलहाल में नक्सलियों के मदद से मामले में स्वतंत्र पत्रकार प्रफ़ुल्ल झा,सामाजिक कायकर्ता बिनायक सेन समेत अन्य लोगों को गिरफ़्तार किया है। इनसे पूछताछ में पत्रकारों को माहवारी पैसा मिलने की जानकारी तो मिली है। डीजीपी ने अपने कई इंटरव्यू में एनजीओ-मानवाधिकार संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाए हैं। आदिवासी और नक्सल क्षेत्रों में काम करने के लिए संगठनों को सरकारी और विदेशी पैसा भरपूर मिल रहा है। जानकार आश्चर्य होता है कि राज्य बनने केञ् बाद यहां एनजीओ की सख्या भी पचास हजार को पार कर चुकी है। इसमें खास बात यह भी सामने आई है कि अधिकांश संस्था नेता-मंत्री और अफसरों की है। ऐसे में संस्थाओं पर सवाल का मतलब भी जाहिर है।

भले ही बहुत सारे आम आदमी की तरह मै भी नक्सलियों की आडियोलाजी और सरकार,विपक्ष,संगठनों की गैरकानूनी हिंसा के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान-कार्यक्रम से वाकिफ हूं या न नहीं। यह अलग बात है लेकिन असल सवाल यह उठता है कि अपनी दुकानदारी के लिए आदिवासियों-जवानों केञ् मौत के सौदागरों से कैसे निपटा जाए। प्रभावित लोग सरकार,संगठन,नेताओं का साथ देकर फ़स रहे हैं। ऐसे लोग अलग-थलग तो पड़े हैं,साथ ही इस असमंजस भी हैं कि आखिर किसका साथ दिया जाए।


सरकार और नेता आंकड़ों में उलझे हैं कि इस साल वारदातें बढ़ी-घटी है पर असल सवाल तो यह है कि घटनाएं हो रही है। सरकार की दलील है कि आजादी के लिए तो कुर्बार्नी देनी ही पड़ती है। मुझे लगता है कि यह बिना मतलब का तर्क है। समस्या पर तमाम लोगों को एकजुट और गंभीर होना पड़ेगा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सैकड़ों गांव खाली हो गए हैं। पचास हजार परिवार कैम्पो में रहकर सालों से निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। शिविरों में महिलाओं-बच्चों के इलाज,पढ़ाई,खाने-पीने की व्यवस्था का अभाव है। अव्यवस्थाओं के बीच सरकार का करोड़ों रूञ्पया व्यर्थ में खर्च भी हो रहा है।

February 13, 2008

हे राम इन्हें माफ कर देना

13फ़रवरी यानि वेलेंटाइन डे के एक दिन पहले मेरे करीबी और वरिष्ठ शैलेन्द्र खंडेलवालजी का फोन आया। वे भिलाई में ग्रीटिंग और गिफ़ट आइटम की शाप चलाते है। फोन पर काफी घबराहट में उन्होंने बताया कि उनके दुकानों में युवकों ने तोड़फोड़ और मारपीट की। भिलाई में उनकी इस तरह की दो दुकानें है। पहले एक दुकान में हमला बोलने के बाद हुड़दगियों की टोली दूसरे दुकान पर पहुंची। उन्हें इसकी आशंका थी,इसलिए पुलिस को सूचना देकर अपने दूसरे दुकान में पहुंचे,जहां पहले से उनके भाई और बहू मौजूद थे।

हुड़दगी वहां पहुंचकर उत्पात करते इससे पहले उन्हें समझाने की कोशिश की गई और बताया कि ऐसा कोई भी सामान दुकान में नहीं है जिससे किसी की संस्कृति,सभ्यता को ठेस पहुंचे। इसके बाद भी वे लोग नहीं मानें और दुकान की तलाशी लेने घुस गये,हालांकि उन्हें कोई ऐसा आइटम नहीं मिला जिसके बहाने वे हंगामा खड़ा करते। जाहिर सी बात कि धर्म के ठेकेदार इन लोगो को कुछ तो करना था,क्योकि वे वेलेंटाईन डे का विरोध करने जो निकले थे। कुछ आपत्तिजनक सामान नहीं मिलने से वे बहस पर उतारू हो गए। इस बीच वहां मौजूद बाकी लोगों ने तोड़-फोड़ शुरू कर दी। इससे भी मन नहीं भरा तो वे मारपीट और लूटपाट भी शुरू कर दिया। इस तरह शैलेंन्द्रजी को चोटें आई और दुकान तहस-नहस अलग से हो गया। उन्होंने पुलिस को पहले ही सूचित कर दिया था। इसका उन्हें कोई फायदा नहीं मिला जब तक पुलिस पहुंची खेल खत्म हो चुका था,इतना ही नही तब तक समाज के इन ठेकेदारों ने वहां के दर्जनों दुकानों का भी वही हाल किया। सारे लोग घातक हथियार तलवार,चाकू सहित लाठी-हाकी से लैस थे। मार और नुकसान खाकर इन दुकानदारों को डाकटरी परीक्षण-शिकायत के लिए घंटों भटकना पड़ा।
मैं पूरे घटनाक्रम की जानकारी इसलिए भी दे रहा हूं कि मेरे पास इसके अलावा कुछ बताने-कहने के लिए नहीं है। यह कोई नई बात भी नहीं है। इस तरह की घटनाएं अमूमन हर साल हर शहर में होती है। शैलेन्द्रजी ने मुझे बताया कि इस तरह की घटनाओं की आशंका के कारण वे कई सालों से 14 फरवरी को दुकान खोलते ही नहीं। लेकिन इस बार एक दिन पहले ही सबकुछ हो गया।
यीशू,गांधी,विवेकानंद और गौतम बुद्ध के इस देश में संस्कृति तो खत्म हो गई तभी तो इजहारे मुहब्बत का सामन बेचने और ऐसा करने वालों के साथ इस तरह की बदसलूकी होती है। मैं वेलेंटाईन डे का समर्थक या विरोधी नहीं हूं,लेकिन इतना जरूर जानना चाहता हूं कि भगवान और धर्म की ठेकेदारी करने वाले इन लोगों को खुलेआम मारपीट-लूटपाट करने का लाइसेंस किस संस्कृति अथवा सभ्यता ने दे दिया। हमारे देश की संस्कृति-सभ्यता में हिंसा का तो स्थान नहीं है। गांधीजी ने भी देश को आजाद कराने हथियारों का सहारा नहीं लिया था,फिर ये लोग किस सभ्यता-संस्कृति की बात कर रहे हैं। विरोध-प्रदर्शन के भी अपने तरीके हैं,शायद इनके लिए नहीं हैं।पुलिस और प्रशासन भी हर साल की इस नौटंकी से वाकिफ है फिर भी वे किस इंतजार में बैठे रहते हैं,पता नहीं। इन हुड़दगियों,समाज सुधारकों की हिम्मत तो देखिए कि वे बकायदा प्रेस नोट भेजकर लोगों को धमकाते भी हैं। जनता हर बार इस भ्रम में रहती है कि पुलिस ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगी या फिर उनके कुछ करने से पहले मुंह काला कर शहर में घूमाएगी,लेकिन पुलिस-कानून तो दादागिरी-गुण्डागिरी करने वालों के लिए नहीं,बल्कि आम लोगों के लिए है। पुलिस बेचारी भी क्या करे,क्योकि सबकुछ एक दिन पहले जो हो गया। आखिर में मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि हे भगवान इन्हें माफ कर देना,ये समझदार नहीं जानते कि क्या कर रहें हैं।

February 10, 2008

अब तो बस करो सरकार

अपने स्कूल के दिनों के साथी संजीत की मदद से आखिरकार मैंने भी ब्लाग बना ही लिया। करीब दो घंटों की सीटिंग के बाद यह तैयार हुआ। ब्लाग का नाम और तमाम जानकारियां संजीत ने ही सुझाया। इसमें थोड़ा काम और बाकी हैं। उसके लिए एक और बैठक दोनों करेंगे। संजीत ने कहा कि तुम्हे लिखना तो शुरू कर देना चाहिए। मैंने भी उससे सहमत होकर की-बोर्ड पर हाथ चलाने का काम शुरू कर दिया है। मैं संजीत के अवारा बंजारा को देखकर काफी दिनों से ब्लाग बनाने के बारे में प्लान कर रहा था। इसके जरिए मैं अपने छत्तीसगढि़या भाईयों-बहनों के साथ जुड़कर प्रदेश की सामाजिक और जनहित के मुद्दों पर चर्चा करना चाहता हूं। पिछलों कई सालों से अखबार व न्यूज चैनल में काम करते हुए भी यही कोशिश करता रहा हूं। अब ब्लाग में इन मुद्दों पर खुली चर्चा और बहस होगी।

पिछले कुछ समय से छत्तीसगढ़ में रमन सरकार की 3 रूपए किलो चावल योजना का जोरदार हल्ला है। 34 लाख गरीब परिवारों को सस्ता अनाज देकर जाहिर सी बात है कि सरकार इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारियों में जुट गई है। इसकी झलक केशकाल के उपचुनाव में देखने को मिली,जहां भाजपा ने रिकार्ड मतों से जीत हासिल कर इसे भुनाया। सरकारी योजनाओं की आलोचना करने के पक्ष में तब तक नहीं रहता हूं,जब तक उससे किसी एक आदमी का भी अहित न होता हो,फिर तो इससे लाखो परिवारों को काफी कम कीमत में दो वक्त का भरपेट भोजन मिल रहा है। मैं कहता हूं कि योजना में भ्रष्टाचार के लिए भले लाख उपाय किए जा रहे हो। भारी मात्रा में फर्जी राशन कार्ड बने हो या फिर गरीबों का राशन की कालाबाजारी की जा रही हो। इसके बावजूद भी लाखों का भला होगा। असल मुद्दा यह नहीं है कि इसमें भ्रष्टाचार हो रहा है। मैं सरकार और उससे जुड़े लोगो,आम जनता से सवाल करना चाहता हूं कि क्या इस योजना से उन सभी गरीबों का वास्तव में भला होने वाला है? दरअसल मूल प्रश्न यह उठता है कि इससे प्रदेश की आर्थिक-सामाजिक,खेती-किसानी और रोजगार की स्थिति पर कितना असर पड़ेगा।

धान का कटोरा कहे जाने वाले इस राज्य में पहले ही पैदावार घट रही है। इस योजना से क्या किसान-मजदूर खेत में जाना पसंद करेंगे? अगर नहीं तो निश्चित रूप से आने वाले समय में धान की फसल में बेताहाशा गिरावट आएगी। हम इसके लिए किसे जिम्मेदार ठहराएंगे? शांतिप्रिय छत्तीसगढि़या की मंशा कभी भी जरूरत से ज्यादा कमाने की नहीं रही है। इसका असर प्रदेश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ेगा और गरीबों के जीवन पर भी। कुछ जानकारों की इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि सस्ता(मुफ़्त)अनाज देने के बजाए सरकार को ज्यादा से ज्यादा पैदावार के लिए योजना शुरू करनी चाहिए। ऐसा करने से आम और गरीब किसान-मजदूर वयक्ति सपन्न होगा अन्यथा गरीबी के आंकड़े में वृध्दि आश्चर्यजनक नहीं होगी।

सरकार इस योजना पर 837 करोड़ रूपए खर्च कर रही है। इतनी बड़ी रकम में किसानों और उनके परिवार का दूसरे ढ़ंग से भला हो सकता है। मसलन सरकार प्रदेश के लाखों गरीब-पढ़े लिखे बेराजगारों को राहत दे सकती जिनसे इन दिनों भर्ती परीक्षा के नाम पर सैकड़ों-हजारों रूपए वसूले जा रहे हैं। इसी तरह शिक्षक और सुविधाविहीन स्कूल-कालेजों में राशि खर्च की जा सकती है। शिक्षा-दीक्षा में पैसा खर्च कर प्रदेश और लोगों का भी भला होगा। जैसा कि पता चलता है कि बस्तर जैसे इलाकों में शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल है। गरीब आदिवासी जागरूकता व शिक्षा के अभाव में चंद लोगों के शोषण का शिकार हो रहे हैं।कई अखबारों के सम्पादकीय पन्नों में इस योजना के तारीफ में इस कदर कसीदे लिखे गए कि विरोध करने वाले लोगों के मुंह में ताले पड़ गए। क्या करें बेचारे राजनीति करने वालों को भी अपने वोट बैंक की चिंता है। दांव उल्टा पड़ गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। मजबूरी में कांग्रेस को दो रूपए किलो चावल की घोषणा करनी पड़ी।

मैं तो कहता हूं कि इस मसले पर गंभीरता से विचार करते हुए सामाजिक संगठनों और प्रबुध्द वर्ग को सामने आना चाहिए। समाचार पत्रों और मीडिया को इस ओर ध्यान दिलाने काम करना चाहिए। मीडिया और ज्यादातर नेता इसमें भ्रष्टाचार-गड़बड़ी को सुर्खिया बनाने तथा लोकप्रियता हासिल करने चुप बैठा है,जबकि इस तरह के मुद्दे बहुत मिलेंगे। यह वक्त गरीबों को प्रलोभनों से वाकिफ कराने और उससे बचाने का है।आदिवासी राज्य होने के कारण इसकी पहचान भी एक भूखे-नंगे प्रदेश के रूप में है। प्रदेश से बाहर के ज्यादातर गैर पत्रकार मित्र आज भी मानते हैं कि छत्तीसगढ़ में आदिम जमाने के लोग रहते हैं। दूसरी तरफ राज्य की खनिज संपदा और जंगलों पर विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की गिद्द नजर है। अफसोस तो तब होता है जब लोग छत्तीसगढ़ को बिकाऊ समझते हैं। कुछ दिनों पहले इंटरनेट में एक विदेशी पत्रकार की स्टोरी पढ़ने मिली। जिसकी हेडलाइन छत्तीसगढ़ फार सोल्ड ही कचोटने वाली है। उन्होंने लिखा था कि अगर आपके पास पैसा है,तो छत्तीसगढ़ बिकने के लिए तैयार है,आप चाहे तो वहां की नदियां,पहाड,जंगल,जमीन,खदान,हवा सब कुछ खरीद सकते हैं।मामला चाहे शिवनाथ नदी के पानी बेचने का हो या फिर देवभोग के हीरा अथवा बैलाडिला के बहुमूल्य लौह अयस्क की बिक्री का हो। पूरी सरकार और अधिकारी कटघरे में नजर आते हैं। ऐसे सरकारी तंत्र को चावल बांटने से ज्यादा दिलचस्पी राज्य की दशा-दिशा और सही पहचान बनाने में दिखानी चाहिए।