May 02, 2011

मुट्ठी भर नमक...और बापू मुस्कुराए...








 

दांडी से समरेन्द्र शर्मा

दांडी सफरनामा

महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह के आखिरी पडाव यानी दांडी पहुंचकर दिलो-दिमाग रोमांचित हो गया। दिल-दिमाग पल भर के लिए फिरंगियों के खिलाफ गांधीजी की संघर्ष की दास्तना की कल्पना में खो गया और आंखो ने पलके मूंद ली। ऐसा लगा समुद्र की लहरें भी बापू के सत्याग्रह का चीख-चीखकर प्रमाण दे रहे हैं। कल्पना में खोए मन ने कहा कि यह वही ऐतिहासिक स्थान है, जहां पर मुट्ठी भर नमक बनाकर बापू शायद मुस्कुराए होंगे।

साबरमती से 25 दिनों की पैदल यात्रा के बाद महात्मा गांधी ने दांडी के इस स्थान पर नमक कानून तोड़कर अंग्रेजों को चुनौती दी थी। इस आंदोलन की शुरूआत में 78 सत्याग्रहियों के साथ दांडी कूच के लिए निकले बापू के साथ दांडी पहुंचते-पहुंचते पूरा आवाम जुट गया था। यहां पहुंचने से पहले गांधीजी ने कराडी में दोपहर और रात का विश्राम किया था। कराडी में आम के पेड के नीचे खजूर के पत्तों से बनी झोपड़ी को अपना ठिकाना बनाया था। वे यहां लंबे समय तक रहे। वे लगभग 20 दिनों तक यहां रहे थे। सत्याग्रह पर निकलने से पहले गांधीजी ने प्रण लिया था कि वे देश को आजाद कराए बिना साबरमती आश्रम नहीं लौटेंगे। लिहाजा आंदोलन की समाप्ति के बाद वे कराडी की झोपड़ी में रहने लगे थे। इसके बाद उन्होंने आंदोलन का विस्तार करते हुए कराडी से धरासणा कूच करने का ऐलान किया। धरासणा में नमक का कारखाना लूटने की घोषणा की थी। इससे अंग्रेज सरकार सकते में आ गई थी और 4 मई की आधी रात को कराडी की झोपड़ी से गिरफ्तार कर लिया।

नवसारी से 13 मील का फासला तय करके हम कराडी होते हुए दांडी पहुंचे। रास्ते भर मन बापू की आंदोलन से जुड़ी यादों को देखने के लिए बेताब हो रहा था। यहां पहुंचकर हमने सबसे पहले उस समुद्र का दर्शन किया, जिसके खारे पानी से उन्होंने नमक बनाया था। यहां का दृश्य और गांधीजी के संघर्ष को याद करके रोम-रोम खड़ा हो गया। समुद्र की लहरों की गड़गडाहट और ढलते सूरज की समुद्र में पड़ती किरणों ने दृश्य को और भी मनोरम बना दिया। नमक सत्याग्रह से जुड़ी बातों और तस्वीरों को याद करके मन कल्पनाशील हो गया। वीरान से दुखने वाले इस समुद्र तट में बापू के साथ जुटी लाखों की भीड और माहौल का अंदाजा लगाकर मन काफी देर कल्पना के समुद्र में गोते लगाने लगा। इससे बाहर के निकलने के बाद भी आंखे काफी देर तक समुद्र की लहरों को ताकती रही। 

 यहां से निकलकर हमने वह स्थान भी देखा, जहां गांधीजी नमक बनाया था। वो घर जहां गांधीजी रूके थे। इस स्थान को ऐतिहासिक बनाने केंद्र सरकार ने यहां मीठे-खारे पानी का सरोवर, गेस्ट हाउस, संग्रहालय और कई निर्माण कार्यों के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। काम भी शुरू हो गया था, लेकिन गांधीवादियों के विरोध के कारण योजना का काम रोक दिया गया है। गांधीवादी नेताओं की दलील है कि बापू फिजूलखर्ची के खिलाफ थे और उन्होंने सादगी के साथ अपना जीवन बिताया था। ऐसे में उनके नाम पर हजारों करोड़ रूपए खर्च करना बेकार है। 

 दिखते हैं बड़े-बड़े बंगले

वैसे तो दांडी काफी छोटा सा पंचायत है। यहां की आबादी केवल 11 सौ है, लेकिन सपंन्नता के मामले में यह छोटा सा पंचायत किसी शहर से कम नहीं है। यहां पूरे सड़क पर बड़े-बड़े आलीशान बंगले दिखाई देते हैं। हालांकि हर बंगलों में ताले लटके हुए हैं। दरअसल यह इलाका खारे पानी और जंगल सा था। यहां के आदिवासी काफी मुश्किल से अपना जीवन यापन करते थे। खेती-किसानी के लायक जमीन नहीं होने उनके पास मजदूरी के अलावा कोई दूसरा चारा था। अंग्रेजों ने यहां के लोगों की मजबूरी का फायदा उठाकर उन्हें केन्या, यूगांडा और अफ्रीका में काम करने के लिए भेजा था। वे लोग विदेशों में बस गए है। बड़ी संख्या में यहां से गए लोग जंगलों में जानवरों के शिकार बन गए। देश की आजादी के बाद इन यहां बसे लोगों को वापसी का प्रस्ताव दिया। ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीयों को इंग्लैंड आने का प्रस्ताव दिया और काफी भारतीयों ने इसे स्वीकार करते हुए इंग्लैंड में बस गए। यहां पहुंचकर इन परिवारों की चौथी पीढ़ी काफी संभल गई है। वे भले ही परदेश में रहते हो, काम करते हो,लेकिन मातृभूमि को नहीं छोड़ा है। अधिकांश लोगों ने यहां अपना गर बना लिया है और साल में एक-दो बार यहां आकर छुट्टियां मनाते हैं। 

April 30, 2011

दांडी की राह पर साकार होता बापू का सपना







 

दांडी सफरनामा

 

नवसारी से समरेन्द्र शर्मा

 

महात्मा गांधी की दांडी यात्रा की राह नवसारी पर मानव मंदिर ट्रस्ट ने बापू के सपनों का भारत बनाने देश के सामने एक मिसाल पेश की है। संस्था ने अंधे, गूंगे-बहरे और मानसिक विकलांग बच्चों की सेवा का बीडा उठाया है। यहां पिछले 40 सालों से ऐसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से लेकर उनके खाने-पीने, रहने का इंतजाम है। संस्था के अध्यक्ष और वरिष्ठ गांधीवादी महेश कोठारी का मानना है कि आज भले ही गांधीजी लोगों को दिखाई नहीं दे रहे है, लेकिन वे आज भी हमारे बीच है। उन्होंने उम्मीद जताई कि लगे रहो मुन्नाभाई फिल्म की गांधीगीरि ने ही बापू के प्रति जागृति लाई है।

महात्मा गांधी ने दांडी यात्रा के दौरान सूरत, डिंडौरी, वांज, धमन के बाद नवसारी को यात्रा को आखिरी दिनों में अपना पड़ाव बनाया था। यहां से कलाडी और दांडी की यात्रा पूरी की थी। नवसारी से दांडी का फासला लभभग 13 मील का है। साबरमती से सूरत तक की दूरी तय करने के दौरान कई ऐसे स्थान भी देखने को मिले,जहां बापू का कोई नामलेवा नजर नहीं आया। नवसारी पहुंचने पर मानव मंदिर ट्रस्ट की गतिविधियों को देखकर लगा कि आज भी गांधीजी के संदेशों और आदर्शों का पालन करते हुए समाज में रोशनी लाने की कोशिश की जा रही है। 

 

मानव मंदिर ट्रस्ट की 1970 में स्थापना की गई। संस्था के अध्यक्ष कोठारी दादा बताते हैं कि यहां लगभग 550 गूंगे-बहरे, अंधे और अपाहिज बच्चों को रखा गया है। ये ऐसे बच्चे हैं, जिन्हें समाज और घर परिवार वाले तक अपने साथ रखना पसंद नहीं करते। ऐसे गरीब और आदिवासी बच्चों के लालन-पालन के लिए नवसारी में दो तथा यहां से 110 किमी दूर दांड में आवासीय स्कूल चलाए जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि अपने बड़े भाई प्रवीण भाई कोठारी की असमय मौत के बाद इस संस्था को शुरू किया। उनका उद्देश्य था कि समाज के ऐसे वर्ग की सेवा करना, जिसे तिरस्कार की नजर से देखा जाता है। महात्मा गांधी भी ऐसे लोगों की सेवा करने को ही असली सेवा मानते थे। यहां के बच्चों की दिनचर्या योग से शुरू होती है। स्नान के बाद प्रार्थना, नाश्ता और पढ़ाई-लिखाई का काम होता है। यहां बच्चों को औद्योगिक प्रशिक्षण भी दिए जाते हैं, ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें।

संस्था को उसकी सेवा के लिए साल 2008 में राजीव गांधी मानव सेवा अवार्ड से नवाजा गया था। एक पहली ऐसी स्वयं सेवी संस्था है, जिसे अपने उल्लेखनीय कार्यों के लिेए यह पुरस्कार दिया गया। वरिष्ठ गांधीवादी नेता आज के माहौल और बापू की बातों से दूर होते समाज को देखकर दुखी है। इसके बावजूद वे मानते हैं कि गांधी कल, आज और कल भी प्रस्तुत हैं। भले ही अभी अंधकार दिखाई दे रहा है, लेकिन उजाला आएगा। देश के नौजवान उठ रहा है। हो सकता है कि गांधीजी का ठिकाना भारत न हो, लेकिन दुनिया में उनके विचारों को आगे बढ़ाया जा रहा है। गांधी तो एक विचार है, जिसको जरूरत लग रही है, वो उन्हें अपना रहे हैं।

 दादा कहते हैं कि उन्हें गांधीगीरि शब्द अच्छा नहीं लगता। लेकिन इस फिल्म ने गांधी को लोकप्रिय बनाने का काम तो बखूबी किया है। इसके बाद लोग गांधी को समझने और जानने के लिए मजबूर हुए हैं। खासतौर पर युवाओं ने बापू के पदचिंहों पर चलने में दिलचस्पी दिखाई है। दरअसल, देश का युवा मौजूदा गांधीवादियों के चेलों से काफी नाराज है। वे युवाओं को गांधी के समीप नहीं आने देना चाहते। गांधीवादियों को अपनी मानसिकता बदलनी होगी, तभी युवाओं की नाराजगी दूर की जा सकती है।

 

 

April 25, 2011

हीरे के सामने फीकी दांडी के नगिने की चमक


दांडी सफरनामा

 

सूरत से समरेन्द्र शर्मा

गुजरात के प्रमुख औद्योगिक शहर और हीरा कारोबार के लिए मशहूर सूरत में देश और दांडी मार्च के नगिने महात्मा गांधी की चमक फीकी पड़ गई है। नमक आंदोलन के जरिए देश को आजादी दिलाने और दुनिया को सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले बापू के इस सूबे में आज खुशहाली, संपन्नता और ऐश्वर्य तो है, लेकिन सूरत में दूर-दूर तक गांधी का नामलेवा नजर नहीं आता।


 अंग्रेजों के खिलाफ गांधीजी के नमक आंदोलन में दांडी पहुंचने से पहले सूरत को अपना पडाव बनाया था। इस शहर और इसके आसपास के गांवों से गुजरते हुए गांधी से जुड़ी यादों को तलाशने की कोशिश की, लेकिन यहां ऐसा कुछ भी नजर नहीं आया। इससे लगे गांव छपरभाट्ठा और डिंडौली के स्कूलों में लगे शिलालेखों में दांडी यात्रा का जिक्र देखने को मिला। दांडी यात्रा के एक महत्वपूर्ण पडाव सूरत में हम केवल शहर और प्रदेश के वैभव से रू-ब-रू हुए। वैसे तो सूरत की ढेरों खासियत है। यहां देश का सबसे बड़ा कांडला पोर्ट बंदरगाह है। जो साल 2001 में भूकंप की भयंकर तबाही के बावजूद फैलाद की तरह खड़ा हुआ है। यहीं हीरे की जगमगाहट को चमकाकर पिरोया जाता है। हीरे तराशने की कला यहां आकर परवान चढ़ती है। जानकारों के मुताबिक यहां हीरे का लगभग 6 हजार करोड़ का करोबार होता है। इतना ही नहीं दुनिया के 11 चुनिंदा हीरों में तकरीबन 9 को यहां से तराशकर भेजा जाता है। इस व्यापार से लगभग 15 लाख लोगों को रोजगार मिलता है। इसके अलावा यह नगरी साक्षी है टेक्सटाइल्स मिलों की। जहां इससे करीब दस लाख से ज्यादा लोगों की जीविका चलती है और सलाना पचास हजार करोड़ से ज्यादा का टर्न ओवर हैं।

कमरतोड़ मेहनत करने वाले गुजराती जायके के भी शौकीन है। यही वजह है कि सूरत की घारी का स्वाद जेहन से दूर नहीं होता। भावनगर का गांठिया और ढोकला भी यहां की खास पहचान है। शिक्षा-दीक्षा, रोजगार, संपन्नता और विकास से परे सूरत की तमाम खूबियों के बावजूद यहां से बापू के निशान पूरी तरह मिट चुके हैं। ऐसा लगता है कि मानो गांधीजी का इस शहर से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। जबकि यह बापू की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनो रही है। दांडी के लिए कूच करने से पहले हमने सूरत में पूरा का पूरा एक दिन बिताया। इस दौरान लंबी-चौड़ी सड़कों, गली-कूचे से लेकर लगभग सभी बड़े रास्तों पर पड़ने वाले ओवर ब्रिज में घूम-घूमकर बापू के पदचिंहों को तलाशने की कोशिश की, लेकिन हमें हर जगह निराशा ही हाथ लगी। आश्चर्य की बात यह भी थी कि अधिकांश लोग इस बात से भी अनभिज्ञ थे कि दांडी यात्रा के दौरान बापू ने शहर को अपना मुकाम बनाया था। सूरत से पहले छपराभाट्ठा में, जहां गांधीजी ने दोपहर को विश्राम किया था, वहां हमें केवल इतना पता चला कि गांधी सूरत के डिंडौली में रूके थे और उसी रास्ते से होते हुए दांडी गए थे। छपराभाट्ठा के स्कूल में जहां बापू रूके थे, वहां पर दीवार पर केवल एक पत्थर लगा हुआ दिखाई दिया। यहां जिस घर में गांधीजी रूके थे, वहां जाकर देखने पर मालूम हुआ कि फिलहाल घर में रखरखाव का काम चल रहा है और उस वक्त वहां कोई भी मौजूद नहीं था। डिंडौली में छपराभाट्ठा की तरह ही एक शिलालेख बापू की दांडी यात्रा का गवाही दे रहा था।

 

 

April 22, 2011

हैलो...मैं गांधी बोल रहा हूं...हैलो हैलो हैलो...








दांडी सफरनामा

बहरूच-अंकलेश्वर से समरेन्द्र शर्मा






हैलो...हैलो...हैलो...मैं गांधी बोल रहा हूं...दूसरी तरफ से...हैलो...आपकी आवाज नहीं मिल रही है। दांडी मार्ग पर तामझाम और अनाप-शनाप खर्च को देखकर लगता है कि गांधीजी अपने सादगी पसंद स्वभाव को याद दिलाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं, लेकिन शायद उनकी आवाज लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। दरअसल, गांधीजी ने आखिरी दिनों में कहा था कि इस दुनिया से अलविदा होने के बाद मेरी बातों और मेरे किए को मिटा देना, हो सके तो मेरे कर्मों को याद रखना, लेकिन यहां ठीक उलटा हो रहा है और गांधीजी की सादगी और सदाचार के प्रचार-प्रसार में ही लाखों-करोड़ों रूपए फूंके जा रहे हैं। दांडी की पगड्डियों ने नेशनल हाईवे का रूप ले लिया है और उनकी याद दिलाने वाले स्मारकों का स्वरूप ऐसा बदल गया है कि वहां केवल धूल खाती तस्वीरें और उजाड़ भवन नजर आते हैं। आश्चर्य होगा कि सरकार ने गांधीजी को सहेजने एक हजार आठ सौ करोड़ से भी अधिक पैसा खर्च किया है।

आओ गांधी टोपी और सूत की माला पहनकर गांधी की पगड्डियों पर चले हम। दांडी कूच के लिए निकलते समय कुछ इस तरह का जज्बा हर भारतीय के जेहन में रहता है। ऐसा इरादा लेकर यात्रा करने वालों को रास्तों पर तामझाम और लोगों की गांधी के प्रति कम होती दिलचस्पी देखकर निराशा हो सकती है। हमने अभी तक दांडी का आधा सफर पूरा कर लिया है। इस दौरान हम बोरअवी, बोरसद, नापा, कंकापुरा, जम्बूसर और समनी जैसे गांवों को पार किया, जहां गांधीजी ठहरे थे और लोगों को संबोधित किया था। ऐसे हर गांवों में गांधीजी की यादों को सहेजने के लिए लाखों-करोड़ों रूपए खर्च किए गए हैं। पूरे रास्ते को नेशनल हाईवे 228 घोषित किया गया है। साबरमती से दांडी तक गांधीजी की पगड्डियों को नेशनल हाईवे बनाने के लिए एक हजार आठ सौ करोड़ रूपए खर्च किए गए हैं। इसके अलावा स्मारकों और भवनों के लिए सौ करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया था। मार्ग के कई गांवों में गांधी भवन या आश्रम का निर्माण कार्य पूरा भी हो गया है, लेकिन इसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। अधिकांश स्थान एक चौकीदार या गांव वालों के भरोसे है। इन स्थानों पर बापू का चरखा, तस्वीर और उनके द्वारा उपयोग की गई वस्तुएं धूल खाती पड़ी हुई है।

गांधी स्मारकों की हालात देखकर कहा जा सकता है कि बापू के प्रति गांवों वालों की दिलचस्पी भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। हर गांवों में दांडी यात्रियों का सम्मान तो भरपूर किया जाता है, लेकिन यह सिर्फ स्वागत-सत्कार तक सीमित रहता है। गांधीजी के बारे में पूछने या उनकी बातों से किसी को बहुत ज्यादा लगाव नहीं देखने को मिलता है। दरअसल सरकारें भी गांधीजी को ब्रांड एम्बेसडर के रूप में इस्तेमाल करने में लगी है। ऐसे में गांव के लोगों और बच्चों के लिए गांधीजी छुट्टियों तक सिमट गए हैं।

बापू के लिए हजारों करोड़ रूपए के खर्च करने के प्रस्ताव का उनके परपोते और पूर्व राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने भी काफी विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि जिस पर चलकर महात्मा गांधी और उनके 78 सहयात्रियों ने नमक सत्याग्रह किया था जिसने भारत की ब्रिटिश सरकार ही नहीं पूरी दुनिया की आत्मा को झकझोर दिया था। उस मार्ग को आ जादी के आंदोलन की धरोहर बनाकर स्थायी महत्व देने का प्रस्ताव गांधीजी के विचार और जीवन से बिल्कुल असंगत होगा। खासकर ऐसे वक्त जब आधे से ज्यादा भारत में समस्याओं की भरमार है। तब ऐसी चीजों पर इतना पैसा खर्च करना बिल्कुल अनुपातविहीन और असंगत होगा। उन्होंने यह भी कहा था कि एक सादा सा स्मारक बने जिस पर दांडी कूच करने वालों के नाम खुदे हों। लेकिन सरकारों को उनका प्रस्ताव पसंद नहीं आया। और पूरे रास्ते को हेरिटेज रूट का रूप दिया गया है।

रास्ते पर चलते हुए ऐसा लगता है कि मानो हमने बापू की बातों और किए के अलावा कर्मों को भी भूला दिया है। जबकि गांधीजी ने अपने कर्मों को याद रखने की सलाह दी थी। दांडी यात्रा के दौरान गांधीजी ने जिन तकलीफों और संघर्ष के साथ मार्च किया था, उसके निशान भी धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। जबकि उन्होंने तो यात्रा के लिए बकायदा कई नियम भी बनाए थे, जिसमें रूकने से लेकर खाने-पीने तक के लिए पक्के नियम थे। लेकिन इन 81 सालों में सब-कुछ बदल सा गया है। ऐसे लगता है मानो गांधीजी अपनी सादगी की बातें लोगों को याद दिलाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज तामझाम और राजनेताओं के श्रेय लेने की होड में दब सी गई है।

April 21, 2011

बापू की राह पर नशे का कोराबार !


दांडी सफरनामा

बोरसद-रास से समरेन्द्र शर्मा

शीर्षक पढ़कर चौंकना लाजिमी है। आपको लग रहा होगा कि दांडी यात्रा का नशा और गांधी से क्या संबंध हो सकता है। बल्कि, गांधीजी ने तो आजादी की लड़ाई के साथ व्यसनों और सामाजिक बुराईयों के खिलाफ भी अभियान चलाया था। वे काफी हद तक अपनी इस मुहिम में सफल भी हुए थे। यही वजह है कि दांडी यात्रा के रास्ते पर पड़ने वाले कई गांवों में आज भी चाय तक को बुराई की नजर से देखा जाता है और पूरे गुजरात में शराबबंदी है। लेकिन हम जो कह रहे हैं, वह बात भी उतनी ही सही है, जितनी की बाकी। दरअसल, बोरसद-रास और कंकापुर के रास्ते पर हमने केवल तंबाकू की फसल लहलहाती हुई देखी। इतना ही नहीं पूरे देश के लिए तंबाकू की आपूर्ति यहीं से होती है।


महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइस्टीन का कथन याद आता है। जिसमें उन्होंने कहा था कि दुनिया में शराब के बाद कोई दूसरा बड़ा नशा है, तो वह महात्मा गांधी है। दांडी यात्रा पर निकलने से पहले जब मैंने गांधी को पढ़ना शुरू किया और मार्ग पर लोगों से मुलाकात की तो मुझे भी आइंस्टीन का कथन काफी हद सही लगा। गांधीजी को जानने और समझने का वाकई नशा सा चढ़ने लगा। मुझे यह भी अहसास हुआ कि साबरमती से यात्रा के हर पड़ाव पर केवल गांधी का ही नशा लोगों के सिर चढ़कर बोलता है। लेकिन बोरसद-रास और कंकापुरा के सफर के दौरान सैकड़ों-हजारों एकड़ में फैले तंबाकू की खेती देखकर अचरज हुआ। हो सकता है कि यहां के लोगों के लिए यह सामान्य बात हो और यह उनका पेशा मात्र हो, लेकिन मेरा आश्चर्य इस बात पर था कि जिस मार्ग के लोग 81 साल पहले के गांधी के चाय के बहिष्कार के आग्रह का आज भी पालन कर रहे हैं, वे कैसे तंबाकू के नशे के सरताज बने हुए हैं।

बापू की इस राह पर चलते हुए मेरे दिमाग में ऐसा कोई ख्याल भी नहीं आया था कि यहां नशे का इतना बड़ा कारोबार चलता होगा। सच कहूं तो यह जानने से पहले हरी-भरी फसलों को देखकर मैं काफी ललचा रहा था। और तो और काफी समय तक इनकी तस्वीर उतारने में लगा रहा। इस बीच खेत में काम करने वाले लोगों से बात हुई, तो पता चला कि इन हरियाली में तो गांधी से भी बड़ा नशा छिपा हुआ है। जिसके चलते वे इसे छोड़ नहीं पा रहे हैं। किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले थोड़ी और तहकीकात करने पर पता चला कि इन गांवों के लोग स्वभाव से भोले-भाले और सरल हैं। गांवों के छोटे और गरीब किसानों के खेतों पर नशे का कारोबार वे नहीं, बल्कि बड़े-बड़े ठेकेदार कर रहे हैं। किसानों से खेत किराए पर लेकर उनमें नशे की फसल काटी जी रही है।

दरअसल, किसानों की मजबूरी यह है कि खेती-किसान से पेट पालना तक मुश्किल हो रहा है, फिर बाकी की तो बात ही छोड़िए। ऐसे में वे खेत को किराए पर देकर और वहां मजदूरी करके थोड़ा ज्यादा मुनाफा कमाने की लालच से ऐसा कर रहे हैं। किसानों की यह गलती उतनी बड़ी नहीं है, जितनी उन ठेकेदारों की है, जो पैसा और नाम दोनों कमा रहे हैं और बदनामी किसानों के खाते में डाल रहे हैं। जानकार बताते हैं कि इस इलाके में सालों से तंबाकू की खेती हो रही है। धीरे-धीरे यह कारोबार कई सौ करोड़ और सैकड़ों एकड़ तक में पहुंच गया है। पूरे देश में बीड़ी बनाने की तंबाकू यहीं से जाती है। अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने बड़े हिस्से और पैमाने पर यह व्यवसाय फल-फूल रहा है। जबकि इस देश की धरती के बारे में कहा जाता है कि मेरे देश की धरती सोना उगले, हीरे-मोती। लेकिन हम ऐसी धरती से क्या-क्या उगलवा रहे हैं, इसकी कल्पना शायद यहां के कवियों और महापुरूषों ने की होगी।



खारा है तो क्या हुआ...

गांधी ने कंकापुरा से दांडी के लिए अगले पड़ाव का सफर महिसागर तट से पूरा किया था। नाव से 9 किमी की यात्रा करने के बाद उन्होंने करेली में रात्रि विश्राम किया था। लेकिन जब हम यहां पहुंचे, तो परिस्थितियां बिलकुल अलग थी। नाव तो बहुत दूर रास्ता बताने के लिए भी कोई नजर नहीं आ रहा था। नदी ने तो मानो गांधीजी को अपने आप में उतारा लिया था और नमक की चादर ही ओढ़ ली थी। नदी में पानी की एक बूंद का नामोनिशान नहीं था। नदी ने जिस मिठास के साथ खारे नमक को अपने सीने से लगाया था, उसे देखकर गांधीजी का एक भाषण याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि मां कितनी भी कुरूप हो कोई व्यक्ति सुंदर महिला को अपनी मां नहीं बनाता। वैसे ही भारत मां के लिए गुलामी की बेड़ियों से आजाद करने वाला खारा नमक भी उतना ही प्यारा मीठा है।

April 18, 2011

बापू के मैनेजमेंट गुरू ने दिखाई दांडी-सहकारिता की राह




दांडी सफरनामा

आणंद से समरेन्द्र शर्मा

बापू की दांडी यात्रा के साथ-साथ गुजरात के आणंद जिले ने सहकारिकता के क्षेत्र में पूरी दुनिया के सामने मिसाल पेश की है। सरदार वल्लभ भाई पटेल त्रिभुवन पटेल और मोरारजी देसाई को सहकारिकता का जनक माना जाता है। उनके बेहतर प्रबंधन और किसनों को एकजुट करने की पहल की बदौलत गुजरात का दुग्ध संघ नंबर वन है। ढ़ाई सौ लीटर दूध इकट्ठा कर कारोबार शुरू करने वाले इस सोसायटी के जरिए 1.8 मीलियन लीटर दूध एकत्रित किया जा रहा है। जानकारों के मुताबिक दांडी यात्रा से पहले सरदार पटेल की किसानों को एकजुट करने की मुहिम के कारण इसे अपेक्षा से अधिक सफलता मिली। बापू ने भी कहा था कि सरदार न होता तो मेरा सत्याग्रह सफल नहीं होता। नमक सत्याग्रह की घोषणा से फिरंगी हुकूमत बापू के बजाए सरदार से घबराई हुई थी। यही वजह है कि अंग्रेजों ने आंदोलन के पांच दिन पहले ही सरदार को गिरफ्तार कर लिया था।

गुजरात के आणंद को आजादी और मूलभूत अधिकारों की लड़ाई में दोहरा श्रेय जाता है। इस शहर ने आजादी की लड़ाई, नमक सत्याग्रह के लिए तो अपना योगदान दिया, साथ किसानों और गरीबों को उनकी मेहनत का मुनाफा दिलाने के कठिन संघर्ष किया। यह कहें कि दांडी यात्रा की सफलता औऱ आणंद के विकास में सहकारिता आंदोलन की अहम भूमिका थी, तो गलत नहीं होगा। आणंद से लगे सरदार पटेल की कर्मभूमि करमसद और बारदोली से इस आंदोलन की नींव पड़ी। इलाके और आसपास के किसानों ने सरदार को अपनी समस्याएं बताई, तो उन्होंने पूरे क्षेत्र का दौरा किया। इससे किसानों और गांव के लोगों से सीधा जुड़ाव हुआ। किसानों से सरदार का सीधा संपर्क होने के कारण ही गांधीजी ने नमक सत्याग्रह की पूरी बागडोर उन्हें सौंपी। इसकी पूरी योजना और मार्ग का निर्धारण पटेल ने किया था। यात्रा की सफलता के लिए सरदार मार्च से पहले गांवों के दौरे पर निकल गए थे। सरदार की इस रणनीति से घबराए अंग्रेजों ने उन्हें 7 मार्च को गिरफ्तार कर लिया, ताकि गांधीजी का मनोबल टूट जाए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, क्योंकि तब तक आंदोलन ने गति पकड़ ली थी।

गांधीजी ने अपने आंदोलन की सफलता का श्रेय पटेल को देते हुए कहा था कि ये मेरा सरदार है। ये नहीं होते तो शायद मेरा आंदोलन सफल नहीं हो पाता। उनकी इस बात को प्रमाण आणंद में देखने को मिलता है। जहां उन्होंने किसानों को एकजुट कर ऐसी संस्था की नींव रखी,जिसका देश-दुनिया में बड़ा नाम है। सरदार पटेल ने किसानों को सुझाव दिया था कि बिचौलिए और हुकूमत उनके उत्पाद का मूल्य नहीं देती है। उन्हे उत्पाद देना बंद कर दो। भले इससे उन्हें नुकसान उठाना पड़े, लेकिन किसानों और उत्पादकों को उनका वास्तविक मूल्य मिलना ही चाहिए। उनके इस सूत्र ने मैंनेजमेंट की ऐसी मिसाल पेश की, जिसे सिद्धांत मानकर बड़े- बड़े मैंनेजमेंट गुरू काम कर रहे हैं।


बाद में सरदार पटेल, त्रिभुवन के पटेल, मोरारजी देसाई के प्रयासों से 1945 के आसपास इसे संगठित कारोबार बनाया गया। 100-200 किसानों से शुरू इस सहकारी संस्था ने विशाल रूप ले लिया है। अकेले आणंद जिले में 15 हजार 322 ग्रामीण सोसायटियां हैं और इससे 6 लाख से अधिक किसान जुड़े हैं। जबकि पूरे गुजरात में 30 लाख से अधिक किसानों की मेहनत से लाखों टन दूध का उत्पादन किया जा रहा है। सरदार को देशभर में लौह पुरूष के नाम से जाना जाता है, लेकिन उन्हें यहां मिल्क मैन और बड़ा मैनेजमेंट गुरू के रूप में देखा जाता है। दुग्ध संघ और इसके उत्पादन से जुड़े बड़े-बड़े लोगों का कहना है कि आज के मैनेजमेंट के डिग्रीधारी उनके इस सूत्र के आधार पर काम कर रहे हैं।

April 13, 2011

नीरव अंधकार में गांवों को चुरा लिया शहरों ने !


दांडी सफरनामा

नादियाड से समरेन्द्र शर्मा

दांडी यात्रा से परे एक दूसरे आंदोलन के समय जब कराडी स्थित झोपड़ी से गांधीजी को आधी रात गिरफ्तार किया गया था, तो उनकी सहयोगी मीराबेन ने कहा था कि अंग्रेज रात के नीरव अंधकार में चोरों की भांति आए और गांधीजी को चुरा कर ले गए। उनका यह वक्तव्य उजड़ते गांवों पर सटीक बैठता है। लगता है कि दांडी मार्ग के गांवों से झोपडि़यों पर पड़ती गुनगुनी धूप, लहलहाती फसल, खेती-किसानी में जुटे किसान, खेतों से लौटती महिलाएं, नदियों की शीतलता, पगड्डी और चौपाल को शहरीकरण की अंधाधुंध कोशिशों ने चुरा लिया है। इस रास्ते पर एक-दुक्का स्थानों को छोड़कर अधिकांश जगहों पर बड़े-बड़े इमारत, डामर-क्रांकीट की सड़के और हमेशा सबसे आगे रहने का तनाव नजर आता है।


अहमदाबाद के साबरमती आश्रम से दांडी के लिए निकली हमारी यात्रा ने चार दिनों में चंदोला तलाब, असलाली, बरेजा, नवागाम, वसना, मतर, दमन, नादियाड और बोरिअवी तक का फासला पूरा किया। लगभग 50 मील के इस सफर के दौरान रोजाना नए अनुभव हुए और नए लोगों से मुलाकात हुए। लगभग हर जगह इलाके के बारे में पूछने पर पता चला कि गांधी की दांडी यात्रा से लेकर अब तक गांवों में जमीन आसमान का फर्क आया है। यह खुशी की बात है कि बीते 81 सालों में गांवों की अच्छी खासी तरक्की हुई, लेकिन गांवों की कई बूढ़ी आंखों में तरक्की के सफर की कसक भी देखने को मिली। बुजुर्ग मानते हैं कि विकास और शहरीकरण की अंधाधुंध रफ्तार ने गांवों को खत्म सा कर दिया है।


नवागाम से आगे बढ़ने पर हमें वसना और मतर के बीच के सफर में ग्रामीण परिवेश का थोड़ा बहुक आभास हुआ है। हरी-भरी फसलों के बीच झोपड़ी पर पड़ती सूरज की किरण, झोपड़ियों में चूल्हा-चौका करती महिलाएं, अपनी मस्ती में कूदते-फांदते बच्चे, खेतों से लौटते किसानों ने गांव के माहौल का अहसास कराया। वसना और मतर के बीच एक छोटी सी नदी, उसके शीतल और साफ-सुथरे पानी और पैरों तले खिसकती रेत की गुदगुदी ने मन को तसल्ली दी। लेकिन यहां से आगे बढ़ने के बाद ऐसे दृश्य तो केवल नाम मात्र के लिए दिखाई दिए। जैसे-जैसे यात्रा आगे बढ़ने लगी, ऐसा लगा मानो खेती-किसानी और झोपड़ियों की जमीन को बड़ी-बड़ी इमारतों-भवनों ने चुरा कर आसमान की ऊंचाई तक ले गए हों। मुंह चिढ़ाते इन भवनों को देखकर लगता मानो कि वे यही सवाल कर रहे हों कि अब कैसे लौटोंगे अपने बीते हुए दिनों की ओर। कहने के गांवों को पार करते हुए नादियाड पहुंचे तो हमारी तलाश और भी बेईमानी लगने लगी। शहर में प्रवेश करते ही समझ आ गया कि शायद हम गांवों को ढ़ूढ़ते रह जाएंगे।

यहां की गगनचुंबी इमारते और कांप्लेक्सों ने सरदार वल्लभ भाई पटेल की जन्म स्थली को भी अपने आगोश कुछ इस तरह जकड़ लिया है कि पता ही चलता है कि इस जगह पर भी कुछ खास है। गनीमत है कि उनके घर के ठीक सामने बापू की प्रतिमा और सरदार की फोटो के साथ सूचना लगा दी गई है। ताकि आने-जाने वाले लोगों को इसकी जानकारी मिल सके।
अपने जमाने का सरदार पटेल यह बंगला छोटे-मोटे मकानों के बीच भी दबा-कुचला सा भाव लिए नजर आता है। इस घर में रहने वाला भी कोई नहीं है। सरदार पटेल के रिश्तेदार अमेरिका के न्यू जर्सी शहर में बस गए हैं। 6 महीने तो यह बंगला पूरी तरह से खाली रहता है। घर की चाबी पड़ोसियों के पास रहती है। कोई आ जाए, तो पड़ोसियों से चाबी लेकर वह सरदार की जन्मस्थली को देख सकता है। बाकी के 6 महीने सरदार पटेल की बहू शॉरमिस्टा यहां रहती है। सरदार की जन्मस्थली देखने हम पहुंचे तो उन्होंने बताया कि सरदार के जन्मदिवस और पुण्यतिथि पर नेता और अधिकारी आते हैं। इसके अलावा विशेष आयोजन होने पर ही यहां लोगों की भीड़ जुटती है।


नादियाड शहर का सरदार पटेल के अलावा गांधीजी से भी गहरा नाता है। उन्होंने दांडी यात्रा के दौरान यहां रात्रि विश्राम के अलावा सभा को भी संबोधित किया था। वे यहां के 180 साल पुराने संतराम मंदिर में रूके थे। आलीशन और भव्य मंदिर के एक कोने में गांधीजी लकड़ी के भवन की पहली मंजिल की खिड़की से सभा ली थी। यह स्थान आज भी सुरिक्षत है। हालांकि लकड़ी के भवन को तोड़कर उसी डिजाइन में सीमेंट का भवन बनाया गया है। गांधीजी के कमरे में चित्रों के सहारे उनसे जुड़ी यादों को सहेजने की कोशिश की गई है। नादियाड गोवर्धनराम और मणिलाल नथूभाई जैसे बड़े साहित्यकारों का भी नगर है। गांधीजी ने भी दांडी मार्च के दौरान इन्हीं का नाम लेते हुए आंदोलन के लिए सहयोग मांगा था और कहा कि क्या उन्हें विद्वानों की विरासत देखने का मिलेगी।

March 22, 2011

गांधी दूत आज भी फैला रहे अमन-चैन का संदेश




दांडी सफरनामा

वसना-मतर समरेन्द्र शर्मा

दांडी मार्ग पर चलते हुए एक गांव से दूसरे गांव के बीच फासला कभी-कभी भारी लगने लगता है। दरअसल, गांव की सीमा खत्म होते ही अगले पड़ाव तक सड़कों पर तेज रप्तार दौड़ते वाहन के शोर-शराबे, लोगों के कामकाज और रोजी-रोटी के तनाव के अलावा कुछ नजर नहीं आता। ऐसा लगता है कि मानो इंसान मशीन हो गया है और उसे बटन दबाकर छोड़ दिया गया है। इस सब के बीच तसल्ली की बात है कि इससे परे राह और भी कुछ है, जो थकान मिटाने के साथ दो पल मन को सुकून देता है। यहां के पेड़ो पर झूलते बंदरों, दाना चुगते कबूतरों और कहीं-कहीं पर रामधुन देख-सुनकर लगता है कि भले ही इंसान और संसार बदल गया हो, लेकिन गांधी के तीन बंदर, शांति के प्रतीक कबूतर तथा भजन में डूबे भक्त गांधी के दूत बनकर संदेश जन-जन तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं।

दांडी यात्रा के दूसरे दिन नवागाम से निकलकर हमने रात और तीसरे दिन शाम तक वसना,मतर,दमन और नादियाड का सफर तय किया। सफर काफी लंबा था। ऐसे में चलना मुशि्कल और यात्रा बोझिल सी लगने लगी थी। ऊपर से हाइवे पर फर्राटे से दौड़ते ट्रकों के शोर-शराबे, धूल, गर्मी ने माहौल को बुरी तरह नीरस बना दिया। दिमाग में ख्याल आता कि पिछले पड़ाव पर विश्राम लेना शायद बेहतर होता। यात्रा के इन ऊबाऊ ख्यालों के बीच नजरें जब सड़क पर बंदरों की चहलकदमी पर पड़ी, तो मन उनकी तरफ आकर्षित हुआ। करीब जाने पर उनकी धमाचौकड़ी और झींगामस्ती से थोड़ी और राहत मिली। पहले से रूकने और सुस्ताने के लिए बहाना ढ़ूढ़ रहे हाथ-पैर के लिए अच्छा मौका था। कंधे पर लदे बैग को उतारकर हमने बंदरों की मस्ती को कैमरे में कैद करना शरीर को थोड़ी राहत मिला और धूप में शांत बैठे बंदरों के चेहरे भी खिल गए और उन्होंने अपनी उछल कूद को तेज कर दिया। उनका अंदाज बिल्कुल वैसा ही लग रहा था जैसे वे भी गांव वालों की तरह हमारा स्वागत खुशी का इजहार कर रहे हैं। बंदरों की टोली में छोटे-छोटे बच्चे भी थे। हमे देखकर अपनी मां के पेट में दुबके बैठे नन्हे-मुन्ने बाहर निकलने के लिए मचलने लगे। कुछ ने तो उछल-कूद करते हमारे पास के पेड़ में आकर तरह-तरह पोज भी देना शुरू कर दिया। उनकी मस्ती देखकर मजा भी आने लगा और गांधी के तीन बंदरों की याद भी आने लगी।

मन अपने आप ही इस बात से गदगद होने लगा कि देखो रास्ते पर इंसानों की बस्ती नहीं है तो क्या हुआ। मानों बंदर कह रहे हों, हम तो हैं। मन अपने आप अहसास करने लगा कि गांधीजी ने गांवों में रूककर लोगों को अपना संदेश दिया था, हो सकता है कि उनकी बातें इन बंदरों तक भी पहुंची होगी। उस समय के लोगों की तरह हमारे पूर्वजों ने भी तो उनका स्वागत किया होगा। वैसे भी गांधीजी ने अपना एक सूत्र बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो और बुरा मत सुनो बंदरों के जरिए ही जन-जन तक पहुंचाया। गांधीजी के इन वास्तविक संदेश वाहकों से मुलाकात के बाद राहत मिली, तो हमने आगे का सफर पूरे उत्साह के साथ दोबारा शुरू किया। तब-तक वसना और मतर का सफर भी पूरा हो गया।

इसी तरह नादियाड तक की यात्रा में पक्षियों की चहचाहट और कबूतरों की गुटर-गू ने हमें खूब लुभाया। नादियाड के संतराम मंदिर के बाहर कबूतरों की गुटर-गू सुनकर लगा रहा था वे भी गांधीजी के ठहरने वाले स्थान पर जमा होकर शांति और अमन का संदेश फैला रहे हैं। गांधीजी ने अहिंसा के बल पर देश को आजादी दिलाने अंग्रेजों की भारी यातनाएं झेली, लेकिन कभी भी हिंसा और अशांति का सहारा नहीं लिया। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में उनके इस हथियार का आज भी लोहा माना जाता है। हालांकि अंग्रेजी हूकुमत शुरूआत में गांधीजी के इस अस्त्र को साधारण मानकर चल रही थी। यही वजह थी कि उन्होंने इस पूरे आंदोलन के दौरान कुछ खास उग्र तेवर नहीं दिखाए। वे तो यह मानकर चल रहे थे कि गांधीजी और उनके साथी इतनी लंबी यात्रा का थकान बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे और खुद-ब-खुद टूट जाएंगे। ऐसे में उन्हें कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन वास्तव हुआ इसके उलट। अंग्रेजों को हार माननी पड़ी और गांधी ने शांति और अहिंसा के मार्ग पर चल कर देश को फिरंगियों से मुक्त कराया।

संतराम, गांधीजी और सरदार पटेल जैसे महापुरूषों की कर्म, रण और जन्म भूमि नादियाड में जुटे शांति के दूतों की गुटर-गु उनके संदेशों के अलावा क्या कह सकती है। इसी प्रांगण में महात्मा गांधी के प्रिय राम धुन का संदेश भी महापुरूषों के प्रति नमन का भाव प्रकट करता है। संतराम मंदिर में पिछले दो महीने से चौबीसो घंटे राम भजन का कार्यक्रम चल रहा है। लगभग 180 साल पुराने इस मंदिर में यह प्रकिया अगले 20 सालों तक चलने वाली है। संतराम को मानने वालों ने उनके महाप्रयाण के 200 साल पूरे होने तक चौबीसो घंटे राम भजन करने का निर्णय लिया है। इस मंदिर व शहर ने अपने भीतर गांधीजी-सरदार पटेल की कई और यादों को सहेजकर रखा है। इसके बारे में हम आपको जानकारी अगली किश्त में देंगे।

सरकार ने भी खोला खजाना

दांडी मार्ग और गांवों को विकास की दृष्टि से देखें, ऐसा लगता है कि पिछले कुछ सालों में काफी काम हुए हैं। केंद्र और राज्य सरकारों ने कई प्रोजेक्ट्स को मंजूरी दी है। इस रास्ते को हैरिटेज मार्ग घोषित किया गया है। अभी तक के सफर में सभी जगह लंबी-चौड़ी सड़कें दिखने मिली। गांव के पहुंच मार्ग भी पक्के और अच्छे हैं। इसके अलावा नवागाम से दांडी तक यात्रियों के लिए 22 विश्राम भवन को मंजूरी दी गई है। बताया गया कि सभी जगहों पर काम अंतिम चरण पर है। इस साल नवागाम से दांडी तक बड़े विश्राम गृह चालू कर दिए जाएंगे। इसके अलावा गांवों की पंचायतों और नगर पालिकाओं को विकास के लिए पर्याप्त फंड दिए जा रहे हैं। हर गांव में स्कूल, अस्पातल और पेय जल के बेहतर सुविधा उपलब्ध हैं। पंचायतों-पालिकाओं में साफ-सफाई पर भी खास ध्यान दिए जाते हैं। यहां रहने वाले लोग भी सफाई के प्रति खासे जागरूक नजर आते हैं। दांडी यात्रा के समय के गांव में बड़े मकान नजर आते हैं। कई नगर पालिका तो किसी मामले में शहर से पीछे नहीं है। कहा जा सकता है कि दोनों सरकारें दांडी के राह पर पड़ने वाले गांवों व शहर के लिए खुलकर पैसा उपलब्ध करा रही है।

March 21, 2011

दिलों में ताजा है धुंधली स्मृतियां और पदचिंह





दांडी सफरनामा

नवागाम से समरेन्द्र शर्मा


महात्मा गांधी के दांडी कूच के दूसरे दिन शाम को नवागाम से आंदोलन ने अपनी रफ्तार पकड़ी थी। इस गांव में ही आगे की रणनीति तय करने गांधीजी और सरदार पटेल के बीच अहम बैठक हुई थी। वह स्थान आज भी सुरक्षित है, जहां आंदोलन की अगुवाई कर रहे दोनों नेता मिले थे और गांधीजी रात बिताई थी। यहां दीवार पर लगी शिलालेख इस ऐतिहासिक क्षण की साक्षी है। इस स्थान के समीप दांडी यात्रियों के लिए विश्राम गृह भी बनाया जा रहा है। इसके अलावा गांव में गांधीजी से जुड़ी धुंधली स्मृतियों और उनके पदचिंह लोगों के दिलों में आज भी ताजा है।

नमक कानून के खिलाफ गांधी की दांडी यात्रा के दूसरे दिन का पड़ाव बरेजा और नवागाम में था। उन्होंने दोपहर को बरेजा तथा रात में नवागाम में विश्राम किया था। बरेजा में उन्होंने विदेशी कपड़ों और वस्तुओं को त्यागने का आव्हन किया था। जबकि नवागाम में उन्होंने फिरंगियों के खिलाफ लड़ाई के लिए बल मांगा था। उनकी दोनों बातों का गांव में ऐसा असर हुआ कि गांव के बच्चे, बूढ़े, महिला,पुरूष सभी वर्ग के लोग आंदोलन से जुड़ गए।

असलाली से निकलकर जब हम बेराज और नवागाम पहुंचे, तो यहां भी लोगों ने दिल खोलकर हमारा स्वागत किया। नवागाम में शाम को साढ़े 6 बजते ही गांधीजी एक मैदान में रूककर प्रार्थना के लिए आसान लगा लिया था। आंदोलनकारी भी उनके साथ बैठ गए और वैष्णव तन जेणे कहिए गाया। इस स्थान पर आज स्कूल है। इस स्थान पर गांधी जी की 4 लाख रूपए की लागत से प्र तिमा लगाई गई है। जिसमें उन बातों का जिक्र किया गया है, जैसा यहां गांधीजी ने किया था।

प्रार्थना सभा से कुछ दूर प्राचीन हनुमान मंदिर के समीप धर्मशाला में गांधीजी ने अपना डेरा लगाया था। धर्मशाला का वह कक्ष जीर्ण-शीर्ण हालात में आज भी उनकी स्मृतियों को सहजे हुए है। एक कमरे में गांधीजी के दांडी के लिए रवाना होने के बाद लगाए गए पत्थर में सरदार पटेल से मुलाकात सहित अन्य महत्वपूर्ण बातों का गुजराती में लिखा ब्यौरा काफी खास मायने रखता है। दरअसल, इस आंदोलन की रूपरेखा सरदार पटेल ने बनाई थी। यात्रा शुरू होने से काफी पहले वे लोगों को एकजुट करने गांव-गांव घूम रहे थे और लंबे अंतराल के बाद दोनों नेता इस गांव में मिले थे। माना जाता है कि इस स्थान से आंदोलन ने पूरे देश में जोर पकड़ा था। यहां पर गांधी के सानिध्य का अनुभव करके स्कूली बच्चे दोपहर का भोजन करते हैं।

इस जगह को सहेजकर रखने के लिए यहां पर काफी काम किए जा रहे हैं। दांडी यात्रियों के रूकने के लिए यहां 50 लाख से अधिक की लागत से विश्राम गृह बनकर तैयार है। दो-मंजिला इस भवन में कार्यक्रम के लिए हाल भी बनाए गए हैं। एक-दो महीने के भीतर इसका लोकार्पण किए जाने की तैयारी है। इसके अलावा भवन के सामने गांधीजी की आदमकम प्रतिमा भी लगाने की तैयारी है।

इस गांव में अंग्रेजी सरकार की यातनाओं के निशान आज भी मौजूद हैं। इस आंदोलन में गांधी के साथ रहे देवशंकर दवे के पोते महेंद्र दवे बताते हैं कि उनके दादा को अंग्रेजों ने दांडी सत्याग्रह से पहले इतनी बुरी कदर पीटा थी कि उनकी कमर तक टूट गई थी। उन्होंने प्याज पर टैक्स लगाने के खिलाफ आवाज उठाई थी और गांव वालों ने प्याज बेचने से इंकार कर दिया था। किसानों ने अपनी फसल को एक स्थान पर इकट्ठा करके रख दिया था। जिसके बाद अंग्रेज सरकार के सैनिकों ने उन पर जमकर लठाईयां बरसाई थी और आंदोकारियों को जेल में डाल दिया था। अंग्रेजी हूकुमत के समय जेल आज भी जस का तस है। हालांकि फिलहाल यहां लोग रहते हैं। इस स्थान पर अंग्रेजों के समय बनाए गए शिव मंदिर में लोग मत्था टेकते हैं।

सेनानी स्व देवशंकर दवे के 80 वर्षीय पुत्र श्याम लाल दवे दांडी यात्रा को याद करते हुए रो पड़ते हैं। वे बताते हैं कि अंग्रेजो के जुल्मों को सहनते हुए सेनानियों ने देश को आजादी दिलाई। यहां के युवा भी गांधीजी और उनके साथियों के बलिदान को याद करके गर्व की अनुभूति करते हैं। युवाओं को कहना है कि उनकी कोशिश रहती है कि गांधीजी के बताए रास्तों पर चलकर देश का नाम दुनिया में रोशन करें।

चाय-पान की नहीं है दुकानें

दांडी यात्रा पर पड़ने वाले गांवों की खासियत है कि यहां व्यसन और सामाजिक बुराईयों के खिलाफ गांधीजी के संदेश का आज भी पालन किया जाता है। नवागाम से पहले बरेजा में गांधी ने कहा कि अगर आप लोग चाय पीते रहेंगे और विदेशी कपड़े पहनते रहेंगे, तो कभी देश में स्वराज की स्थापना नहीं हो सकती है। इसलिए इनका त्याग करना आवश्यक है। इसके बाद यहां के लोगों ने विदेशी कपड़ों की होली जलाकर चाय पीना छोड़ दिया था। नवागाम में इसका काफी हद तक पालन किया जा रहा है। 10 हजार की आबादी वाले इस गांव में एक भी चाय और पान की दुकान नहीं है। लोगों का कहना है कि गांधीजी ने चाय के बहिष्कार का आव्हान किया था, इसलिए उन्होंने तय किया है कि चाहे जो भी व्यापार कर लें, लेकिन चाय और पान का व्यवसाय नहीं करेंगे। इसी तरह यहां पर शराब के खिलाफ लोग में जागरूकता है। हालांकि पूरे प्रदेश में शराबबंदी लागू है, इसके बावजूद लोग नशे के खिलाफ लोगों को जागरूक करते रहते हैं।

March 19, 2011

देखो! गांधी टोपी और सूत की माला से बदलती तस्वीर



दांडी सफरनामा

असलाली से समरेन्द्र शर्मा

महात्मा गांधी की राह (दांडी यात्रा) पर चलने के लिए अगर आपके पास गांधी टोपी और सूत के माला है, तो समझ लीजिए आपकी आधा यात्रा तो अपने आप सहज हो जाएगी। जब हम गांधी टोपी और सूत की माला पहनकर दांडी के लिए निकले तो पता नहीं चला कि कब 13 मील का सफर तय करके असलाली पहुंच गए। टोपी और माला को देखकर लोग काफी उत्साह से आवभगत करते हैं। वे फिर यह नहीं देखते कि यात्री किस जात या धर्म का है। उनके लिए इतनी जानकारी मायने रखती है कि वह दांडी यात्री है। लोगों ने हमारे साथ यात्रा के लिए निकले अंग्रेज युवक ज्यस्पर का भी उतनी ही गर्मजोशी से स्वागत किया, जितना हमारा किया। लोग इस बात से भी काफी गदगद नजर आए कि एक फिरंगी भी गांधीजी के रास्ते पर चल पड़ा है। रास्ते पर मेरा और अंग्रेज युवक का उत्साह उस समय और दुगुना हो गया जब सुनने मिला देखो हिंदी-अंग्रेज साथ-साथ।

दांडी कूच के ऐतिहासिक तारीख के दिन हमने भी साबरमती आश्रम से सुबह सात बजे अपनी यात्रा शुरू की। हमारा पहला पड़ाव कोचरप आश्रम था। दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के बाद गांधीजी ने यही डेरा डाला था। वे यहां लगभग दो सालों तक रहे। इलाके में छूआछूत की भावना और प्लेग की महामारी की वजह से गांधीजी को यह स्थान छोड़ना पड़ा। लोग बताते हैं कि इस आश्रम में एक हरिजन दंपत्ति को शरण देने से गांधीजी को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। उसके बाद उन्होंने साबरमती आश्रम को अपना डेरा बनाया। इस स्थान के चयन के पीछे गांधीजी ने दलील थी कि यहां से श्मसान और जेल दोनों नजदीक हैं और दोनों जगह जाने के लिए उन्हें लंबी यात्रा नहीं करनी पड़ेगी।

कोचरप आश्रम में थोड़ी देर विश्राम के बाद हम चंदोला तालाब और असलाली पहुंचे। चंदोला तालाब में गांधीजी ने दोपहर तथा असलाली में रात्रि विश्राम किया था।

पहले दिन की यात्रा के दौरान रास्ते में हमे तपती धूप और भारी भरकम ट्रैफिक के कारण तकलीफ हुई, लेकिन गांव के लोगों के उत्साह और प्रे म को देखकर थकान मानो गायब सा हो गया। यहां के लोग गांधी टोपी और माला देखकर खुद ब खुद समझ गए कि हम दांडी यात्रा के लिए निकले हैं। सभी लोगों ने भरपूर सहयोग किया। मेरे साथ चल रहे एक अंग्रेज युवक का भी लोगों ने दिल से स्वागत किया। किसी के मन यह भावना नजर नहीं आई कि गांधीजी ने अंग्रेजों के खिलाफ ही मोर्चा खोला था, ऐसे में उनका यहां काम हो सकता है। इसके पहले भी पिछले साल ब्रिटेन की उच्चायुक्त की पत्नी जिली बकिंघम ने दांडी यात्रा की थी। साफ है कि गांधीजी के विचारों और सिद्धांतों को अपनाने में फिरंगी भी काफी दिलचस्पी दिखा रहे हैं।

असलाली के अपने भाषण में गांधीजी ने कहा था कि केवल असहयोग के हथियार को अपनाओ। उन्होंने सरकारी टैक्स, नौकरियों और सामानों के बहिष्कार का आव्हान किया, तो सबसे पहले यही के मुखी रणझोण भाई ने अंग्रेजों की नौकरी से त्यागपत्र का एलान किया था। उनके इस्तीफे ने पूरे देश में खलबली मचा दी थी और लोगों ने फिरंगियों और उनकी वस्तुओं का खुलकर विरोध शुरू कर दिया।

दांडी यात्रा के समय इस गांव की आबादी केवल 17 सौ थी। अब इसकी जनसंख्या बढ़कर 6 हजार हो गई है। गांधीजी ने जिस धर्मशाला में रात बिताई थी, वहां अब पंचायत भवन और आरोग्यधाम बन गया। हमने भी इसी जगह को अपना ठिकाना बनाया। हमने जब गांव के सरपंच जनक भाई बीरा से संपर्क कि उन्होंने काफी उत्साह से अगुवानी की। यहां के एक प्रतिष्ठित गुजराती परिवार ने अपने घर भोजन करवाया। ऐसा लगा जैसे अपने ही घर में बैठकर भोजन कर रहे हैं।

ऐतिहासिक दांडी यात्रा के साक्षी असलाली गांव में काफी बदलाव हो गया है। गांव के बड़े-बुजर्गों के मुताबिक गांधीजी के प्रवास के दौरान गांव के आसपास जंगल हुआ करता था। गांधीजी ने पगड्डी के किनारे यहां सभा ली थी। अब गांव में झोपड़ियों के बजाए पक्के मकान और पगड्डी की जगह क्रांक्रीट के सड़क ने ले ली है। गांव में शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर अच्छी जागरूकता दिखाई पड़ी। घर तथा सड़कों पर कहीं भी बहुत ज्यादा गंदगी नजर नहीं आई।

गांव में भले ही काफी बदलाव हुए हैं लेकिन आज भी लोगों के मन में गांधीजी के विचारों के प्रति काफी सम्मान है। गांव के सयाने जरूर इस बात दुखी है कि गांधीजी के विचारों को आत्मसात करने और उनकी स्मृतियों को सहेजने की दिशा में वे कोई सार्थक प्रयास नहीं कर रहे हैं। गांधीजी ने हमे विदेशी वस्तुओं को त्यागने की शिक्षा दी थी, लेकिन आज हम उसी के गुलाम होते जा रहे हैं। असलाली गांव के सेवानिवृत शिक्षक नटवर भाई पटेल का कहना है कि बापू की बताई बातों को छोड़कर हम पाश्चात्य संस्कृति की ओर भाग रहे हैं। टीवी, क्रिकेट और अंग्रेजी ने हमे एक बार फिर अपना गुलाम बना लिया है।

इस यात्रा में अंग्रेज युवक ज्यस्पर के साथ वक्त गुजारने का मौका मिला। बातचीत में प्राचीन इतिहास में उसकी खासी दिलचस्पी है। उसने अपनी पढ़ाई भी इसी विषय में की है। दो साल पहले जब गांधीजी के बारे में सुना और पढ़ा, तो वह उनसे काफी प्रभावित हुआ। उनके सिद्धांतों और विचारों को बेहतर ढ़ंग से जानने के लिए दांडी यात्रा पर आए हैं। उसका कहना है कि गांधीजी के अहिंसा और समानता के भाव बड़ा रहस्य है। इसके बलबूते पर उन्होंने पूरी दुनिया को नया सबक सिखाया है। गांधीजी के विचारों को जानने के बाद वे खुद में काफी बदलाव महसूस करते हैं। वे हर पहलूओं पर सकरात्मक ढ़ंग से सोचने लगे हैं। उनकी विचारधाराओं का ही नतीजा है कि उनके चरित्र की जटिलताएं खत्म हो रही है और वे पहले से ज्यादा सरल महसूस करते हैं

March 17, 2011

पता नहीं कब और कैसे भरभरा गई मुठ्ठी भर नमक





अहमदाबाद, 17 मार्च। चाहिए बस एक मुठ्ठी नमक और जाग गया पूरा आवाम। महात्मा गांधी ने जब 12 मार्च 1930 को फिरंगी हूकूमत के खिलाफ नमक कानून तोड़ने के लिए दांडी कूच किया था,तो पूरे देश को समझ में आ गया कि यह नमक की लड़ाई देश के स्वाभिमान और बुनियादी हक के लिए है। भले ही इस यात्रा में गांधीजी के साथ 78 लोग शामिल थे, लेकिन देश के बच्चे-बच्चे और विदेश से भी उन्हें भरपूर समर्थन मिल रहा था। मुठ्ठी भर नमक के बहाने गांधीजी ने लोगों को ऐसे पिरोया कि अंग्रेजों को आखिरकार मुल्क छोड़ना पड़ा। आजाद भारत के इन 63 सालों में मुठ्ठी की एकता कब और कैसे भरभरा गई, पता ही नहीं चला। हालात यह है कि गांधीजी के सिद्धांत और आदर्श केवल मुन्नाभाईयों की गांधीगीरि में देखने-सुनने मिलती है। इस बात का मलाल उन लोगों के चेहरों पर साफ नजर आता है, जो आज भी गांधीजी के बताए रास्तों पर चलना पसंद करते हैं।

यह बात हम सभी जानते हैं कि गांधीजी ने दांडी यात्रा केवल नमक कानून तोड़ने के लिए नहीं की थी, इसके पीछे उनका मकसद बिल्कुल साफ था कि वे देश में स्वराज और सुराज लाना चाहते हैं। दांडी मार्च के दौरान वे अपने भाषणों के जरिए लोगों को विदेशी कपड़ों को छोड़कर खादी पहनने और व्यसनों को त्यागने का आग्रह करते थे। उनकी दलील थी कि विदेशी सामानों और नमक के कारण देश का लाखों-करोड़ों रूपया बाहर जा रहा है। यात्रा के दौरान गांधीजी प्राय: सभी गांवों-कस्बों में रूककर इन्हीं बातों को समझाने की कोशिश करते थे, इसका नतीजा देश को आजादी के रूप मिला। लेकिन स्वराज स्थापना के इतनों बरसों बाद भी देश सुराज के लिए दूसरे गांधी का मुंह ताक रहा है।

दरअसल अहमदाबाद आने के बाद दो किस्सों ने मुझे ऐसा सोचने के लिए मजबूर किया। पहले वाक्ये में मुझे एक गांधी समर्थक ने बताया कि लगे रहो मुन्नाभाई फिल्म के रिलीज होने के बाद साबरमती आश्रम में बच्चों की भीड़ भी आती है। माता-पिता बच्चों का यहां तब घुमाना शुरू किया जब बच्चों ने फिल्म देखने आने की जिद की। मतलब साफ है कि आज गांधीजी सिर्फ विचारों और किताबों तक सीमित हैं। जबकि उनकी बताई बातें रोजाना के काम से जुड़ी हैं। लेकिन घरों में गांधीजी का जिक्र कुछ मौकों पर ही आता है।

दूसरा वाक्या उस समय हुआ जब मैं आश्रम में किताबें देख रहा था, उसी समय एक खादीधारी सयाने से दिख रहे व्यक्ति ने आश्रम के संचालक से सवाल किया कि गांधीजी तो चले गए, अब आगे क्या। उनकी बातों में व्यंग नजर आ रहा था। हालांकि मुझे बाद में बताया कि वे एक बड़े गांधीवादी विचारक माने जाते हैं। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि गांधीजी की विचारधारा और उनके पदचिंह अहमदाबाद में ही धुंधले हो रहे हैं। इस बात से वे लोग भी इत्तेफाक रखते हैं, जो अपने पूर्वजों और गांधीजी से मिली विरासत को सहेजे हुए हैं।

गांधीसेना के अध्यक्ष और चार बार के दांडी यात्री धीमंत भाई मानते हैं कि गांधीजी की विचारधारा और आदर्शों के प्रचार-प्रसार के लिए केंद्र सरकार को खास ध्यान देना चाहिए। उनके नाम पर लाखों-करोड़ों रूपए खर्च तो हो रहे हैं, लेकिन उसकी सार्थकता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि गांधीजी के बारे में नई पीढ़ी को कुछ भी नहीं मालूम है। वे कहते हैं कि सरकार के पास अभी समय है। इस दिशा में सोचना चाहिए और स्कूल की पढ़ाई की शुरूआत से गांधीजी पर विशेष पाठ्यक्रम होना चाहिए। गांधी का उपयोग आजकल दिखावे और प्रचार-प्रसार के लिए ज्यादा होने लगा है।

वे बताते हैं कि गांधीजी ने उनके परदादा को खादी के काम के लिेए बुलाया था। पिता के विरोध के बावजूद वे इन दिनों इमाम मंजिल में खादी का काम देखते हैं। ब्याज पर पैसे लेकर उन्होंने दो लूम खरीदा है। लेकिन पूरे शहर में सूत कातने के लिए कोई कारीगर नहीं है। गांवों से कारीगर बुलवाकर खादी बनाते हैं। उन्हें तसल्ली इस बात की है कि गांधीजी के बताए रास्तों पर चलने की कोशिश कर रहे हैं। धीमंत भाई साल 1998 से लेकर अब तक चार बार राजीव-सोनिया गांधी सहित कई हस्तियों के साथ दांडी मार्च कर चुके हैं। वे एक बार दक्षिण अफ्रीका में 241 मील की यात्रा कर चुके हैं।

धीमंत भाई के ही परिवार के ही हिम्मत भाई और जय सिंह भाई भी साथ-साथ कई बार यात्रा कर चुके हैं। जय सिंह भाई रिजर्व बैंक में नौकरी करते हुए रिटायर हुए हैं। वे बताते हैं कि गांधी स्कूल में पढ़ने के कारण शुरू से उनके विचारधारा से प्रभावित थे। आज भी घर के साथ-साथ सड़क की सफाई के लिए बड़ा सा झाड़ू लेकर निकल पड़ते हैं। संस्मरण सुनाते हुए वे कहते हैं कि रास्ते में गांव वाले काफी उत्साह से हर दांडी यात्री का स्वागत करते हैं। खाने-पीने की चीजों से लेकर रहने तक का ध्यान रखते हैं। अपनी यात्रा के दौरान उनकी कोशिश होती है कि लोगों और स्कूल के बच्चों को गांधी के बताए रास्तों पर चलने के लिए प्रेरित करें।

हिम्मत भाई बताते हैं कि उनकी दांडी यात्रा का मकसद है कि वे ज्यादा से ज्यादा लोगों को गांधीजी के विचारों से जोड़ सकें। सरकारी नौकरी में रहते हुए उन्होंने अवकाश लेकर यात्राएं की। पहली बार यात्रा करने के बाद से वे लोग खादी के अलावा कोई दूसरा कपड़ा नहीं पहनते। सभी की इच्छा है कि समाज से व्यसन, छूआछूत और कन्या भ्रूण हत्या बंद हो,लेकिन वे इस बात से खासे दुखी भी है गांधीजी का उपयोग लोग राजनीति और नाम कमाने के लिए किया जा रहा है। उनके सिद्धांत गांधीगीरि में तब्दील हो गए हैं।