February 25, 2008

कहां से कहां ... तक

एक-दो रोज से काफी फ़ुर्सत में हूं। इसके बावजूद लिखने -पढ़ने जैसा कुछ नहीं हो रहा है। एकदम खाली होना भी निरस हो जाता है। दरअसल एक नौकरी छोड़कर दूसरी ज्वाईन करने की तैयारी है। इस वजह से भी दिमाग में तरह-तरह की उलझनें है और कुछ दूसरी परेशानी भी है।

खैर एक दो दिन की बात है,सोचकर मन को तसल्ली दे रहा हूं। अधिकांश समय घर में रहना हो रहा है। लगता था कि घर में आराम ही आराम होगा लेकिन यहां तो एक कप चाय के लिए भी जूझना पड़ता है। मुंह से चाय का नाम सुनकर बीवी की आंखे लाल हो जाती है और दिनभर के चाय का बही खाता खुल जाता है। रोज अलग-अलग बहाने और तानों से चाय मिल जाए तो लगता है कि जंग जीत गया। चाय के लिए कई बार किसी के आने का इंतजार भी करना पड़ता है। कई दफ़े तो फोन कर किसी को बुलाने का जोखिम भी लेता हूं। खैर सभी शादीशुदा लोगों को घर में इस तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता होगा। मेरे जैसे लोगों के लिए यह कोई नई बात नहीं है।

बीते रविवार को मैंने एक कप चाय के लिए बैठे-बिठाए एक नई मुसीबत मोल ले ली। बीवी ने चाय के बदले जगार घूमाने की शर्त रख दी। तलब थी तो आगे-पीछे का सोचे बिना सर हिला दिया। चाय खत्म होने के बाद लगा कि कंगाली में आटा गिला होने वाला है। एक तो बेरोजगार और अखबार की नौकरी में एक माह की पगार नहीं मिली सो अलग।

मर्द की जुबान का दंभ भरते हुए मेला जाने तैयार हुआ,लेकिन वहां बीवी ने तो कुछ खास परेशानी में नहीं डाला अलबत्ता मेले के माहौल से जरूर प्राब्लम हुई। स्कूल-कालेज में पढ़ने वाली लड़कियों और उनकी अम्माओं का कहर देखकर मेले से जी भर गया। मेले-ठेले में भ्रमण का शौक ज्यादा नहीं है। गए भी तो किसी स्टाल में चाय और दोस्तों के साथ देश-विदेश की चर्चा से मेला घूमना हो जाता था। इस बार बीवी के साथ गया था,तो दोस्ती-यारी केवल हाय-हैलो तक ही रही। मेला घूमने के लिहाज से इधर-उधर नजर दौड़या ,तो लगा कि अनजाने देश के किसी माल या फिर किसी फ़ैशन शो तो नहीं पहुंच गया।

एक जगह और एक साथ लडकियों की नीची खिसकती जींस और ऊपर चढ़ती टी-शर्ट देखकर अजीब सा लगने लगा। इतना ही नहीं महिलाओं के महीन सलवार कुर्ता और साड़ी के बीच झांकते भीतरी कपड़ों का नजारा भी समझ नहीं आया। पहले मुझे लगा कि यह फ़ैशन का नया चलन होगा,लेकिन बात हजम नहीं हो रही थी। क्योकि इसमें फ़ैशन कम शरीर ज्यादा दिख रहा था। हो सकता है कि मेरी बातें कईयों को पुरानी या दकियानूसी लगे। मैं फ़ैशन को कोसना भी नहीं चाहता,लेकिन सोचने समझने को उस समय विवश हुआ जब उन कुछ मनचलों पर नजर पड़ी जो मेला नहीं बल्कि लड़कियों और महिलाओं को ही घूर रहे थे। कई तरह के कमेंट भी सुनने मिले। ऐसी ज्यादातर लड़कियों तथा महिलाओं के साथ उनका पूरा परिवार भी था। ऐसे में अटपटा नहीं लगना अस्वाभाविक सा ही है। मुझे लगता है कि इस गंभीर विषय पर हम सभी को विचार करने की जरूरत है। जब तेजी से गांव से लेकर शहरी,मेट्रो संस्कृति और सभ्य समाज में छेड़खानी-बलात्कार,शोषण की घटनाएं बढ़ रही हैं।

6 comments:

अनिल रघुराज said...

मेला, मनचले, चाय और चुस्की... कहां से शुरू करके कहां तक टहला लाए आप। चलिए अच्छा है। नई नौकरी से पहले कुछ तफरी जरूरी है।

Lokesh Kumar Sharma said...

शर्मा जी वो देखने देखने का नजरिया होता है. अपने नजर मे खोट होता है फ़ैशन का नही होता. हमारे यहा अपने बजाये दुसरो के बारे ज्यादा सोचते है. ज्यादा नही हुआ तो भरतीय परम्परा का दुहाई देने लगते है.

Lokesh Kumar Sharma said...

फ़ैशन और छेड़खानी-बलात्कार का एक दुसरे से संबंध होता तो पश्चिमी देशो मे अधिक छेड़खानी-बलात्कार होता. बल्की यहा पर भारत से बहुत ही कम है या कह सकते हो न के बराबर है. छेड़खानी करते यहा पर कोई नही मिलेगा. जरुरत ये है कि भरतीय समाज सभ्य और सुसंस्कृत करना पडेगा. आज आये दिन पर्यट्को के साथ छेड़खानी-बलात्कार होता रह्ता है.

Samrendra Sharma said...

लोकेश जी
आपके दो-दो कमेंट के लिए धन्यवाद। मैं एक बात शुरु से कहता आया हूं कि आलोचना करना मेरा मकसद नहीं है। समाजिक विषयों पर खुलकर बहस करना चाहता हूं। आपने कहा मेरे नजरिए में खोट हो सकता। इस पर मैं कुछ नहीं कहूंगा। लेकिन यह जरूर है कि भारतीय परम्पराओं के प्रति हमारी सोच सकरात्मक नहीं है। हमें लगता है कि भारतीय परपरा सबसे खराब और निराधार है। जिसके कारण हम विदेशी संस्कृति की वकालत करते हैं। जब भारतीय संस्कृति व परम्परा में पले-बढ़े लोग पूरी दुनिया में डंका बजा रहे हैं तो उसके प्रति इतनी दुर्भावना क्यो? हो सकता इसमें सुधार की जरूरत है लेकिन पूरी तरह से खारिज करना जायज नहीं लगता। आदन-प्रदान बराबर होना चाहिए। हुम फ़ैशन का आदान-प्रदान कर रहे है और सोच जस की तस है तो इसका काई मतलब नहीं। जैसा कि आपने कहा कि पश्चिमी देशों में भारत की तुलना में काफी कम बलात्कार-छेड़खानी की घटनाएं होती है,कोई शक नहीं है। उसकी वजह है कि फ़ैशन के साथ विचारों और सोच में भी उतना ही खुलापन है,लेकिन भारतीय लोगों ने केञ्वल फ़ैशन को अपनाया है। आपके ध्यान में एक बात और लाना चाहूंगा कि कुछ दिनों पहले अटारी में महिला के साथ उसके पति की आंखों के सामने कुछ युवक ने सामुहिक बलात्कार किया था। इस घटना ने हमारे सामने एक सच्चाई भी सामने लाई थी कि यह कोई नई बात नहीं है। सुनसान इलाका होने के कारण एकांत की तलाश में यहां आने वाले प्रेमी युगल आए दिन इस तरह की घटनाओ का शिकार होता है। चोरी-छिपे जाने वाले अधिकांश लोग चुप रहने में अपनी बेहतरी समझते है। स्वाभविक है ऐसे लोगो का हौसला बढ़ेगा। कुल-मिलाकर हमारी दो राह पर खड़ी सोच पर बदलाव जरूरी है।

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म्म, ढक्कन, तो भौजी चाय ढंग से नई दे रही ये शिकायत तो ऐसे कर रहा है जैसे कई सदियों से शादीशुदा है!!
जुम्मा जुम्मा साल भर हुआ नई शादी हुए और यह हालत, रुक जा भाया आता हूं घर और भड़काता हूं भौजी को!!
बाकी जगार ही नई शहर में कोई भी आयोजन हो वहां का यही दृश्य रहता है। रविवार की शाम रायपुर में कुछ भी आयोजन चलता हो वहां यही दृश्य रहता है।

Lokesh Kumar Sharma said...

शर्मा जी क्षमा चाहता हू. मेरा उदेश्य ये नही था. आपके नजरो को कुछ नही कहा, मै एक जनरल वाक्य काहा था. मै भी रायपुर का हि हु. शर्मा जी आप सामाजिक विषयो मे बात करना चाह्ते अच्छी बात है. लेकिन आज भारतीय समाज मे विदेशी संस्कृति इतना मिल गया है कि एक आम आदमी का ये कहना ये भारतीय संस्कृति और ये विदेशी संस्कृति मुश्किल सा है. भारत मे 1507 से 1857तक विशेष कर उत्तर भारत मे अफ़गानीयो का सम्प्रभुतव था. अफ़गानीयो के साथ अरबीस संस्कृति आई और भारतीय संस्कृति मे मिल गई. 1857 से 1947 तक भारत मे अंग्रेजो का सम्प्रभुतव था जिसे पश्चिमी संस्कृति भारत मे आई. आज भारतीय संस्कृति और समाज भी हमारे संविधान कि तरह धर्म और क्षेत्र मे बटा हुआ है. उसमे ये कहना ये भारतीय संस्कृति ये है, ये नही कहना मुश्किल है. मै छ.ग. से हु वाहा पर येसे पर्दा प्रथा का चल नही के बराबर है. संस्कृति को देखना है और समझना है तो शहर नही, शहर से दुर गाव बेहतर होता है.