July 15, 2010
कौन शर्मसार और कौन कलंकित
पटक पटक कर मार डाला.... भाई-बहन का रिश्ता हुआ शर्मसार...ममता हुई कलंकित...इस तरह की सुर्खियां आजकल हर न्यूज चैनल की पहली हेडलाइन होती है। टीवी खोलते ही इस तरह की खबरें देखकर कई बार बुरी तरह से इरीटेशन होता है। मुझे लगता है कि ऐसा केवल मेरे साथ नहीं बल्कि कईयों को भी होता है। पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण इसकी वेल्यू को समझता हूं। कई बार ऐसे मौके आए जब इस तरह की खबरों को सनसनीखेज बनाने के लिए मीटिंग में माथापच्ची करनी पड़ती थी। दरअसल यह बात इसलिए भी करहा हूं कि मुझे अपने एक संपादक की बात याद आ गई। आत्महत्या की एक खबर पर वो सिर्फ इसलिए जोरदार भड़क गए थे कि मेरे सहयोगी रिपोर्टर ने हेजलाइन से लेकर खबर में भी दो-तीन जगह सल्फास खाकर युवक ने खुदकुशी की, लिख दी थी। पहले तो इतनी छोटी से भूल के लिए इतने जोरदार गुस्से के लिए हम लोगों ने उन्हें काफी कोसा था। उनका कहना था कि जहर खाकर आत्महत्या लिखना काफी है, क्यों हम लोगों को आत्महत्या वाली दवाइयां का नाम प्रचारित कर रहे हैं। अब उनकी बात को याद करके लगता है कि हम खबरों को सनसनीखेज बनाने के चक्कर में क्या क्या गलती करते हैं।
मेरा मानना है कि कोई व्यक्ति या समुदाय का कोई भी कदम विचारधारा की परिणिति होती है। विचारधारा समाज और होने वाली घटनाओं को महत्व देने से बनती है। हम अक्सर देखते हैं कि किसी हादसे या घटना के पक्ष-विपक्ष में होने वाली प्रतिक्रया को जनभावना के रूप में प्रचारित किया जाता है। लेकिन वास्तव में ये जनभावनाएं नहीं होती। इसमें कुछ ऐसी विचारधारा होती है, जो कहीं कहीं से बायस्ड होती है। जिसका प्ररिणाम हर उस व्यक्ति को भुगतना पड़ता है, जो इससे प्रभावित हुआ है। बार-बार इस तरह की घटनाओं के सुनने या देखने से यह भी लगता है कि लोगों ने इस ढ़ंग से अपनी तकलीफ या समस्या को कम करने की कोशिश की थी, भले ही वे सफल हुए या नहीं इससे उन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता। आपने देखा हुआ कि मीडिया में किसी घटना के जरूरत से ज्यादा प्रचारित होने पर आसपास या कहीं और उसकी पुनरावृत्ति होती है।
कुल मिलाकर मेरा कहना है कि टीआरपी के चक्कर में हम लोगों के मन मष्तिक को किस तरह दूषित कर रहे हैं। इसका भी ध्यान रखना चाहिए, केवल साप्ताहिक रैटिंग के लिए हम अपने दायित्वों और समाज के प्रति अपने कर्तव्यों को ध्यान रखे तो हम एक अच्छा वातावरण बना सकते हैं।
नेशनल चैनल में तो फिर भी स्थिति थोड़ी ठीक है, लेकिन रीजनल चैनलों ने पूरी सीमाएं ही लांघ दी। वहां बैठे वरिष्ठ संपादक और अनुभवी लोग यह भी भूल जाते हैं कि उनके चैनल को घर परिवार में छोटे से बड़े बुजुर्ग भी देखते हैं। टिकर और ब्रेकिंग खबरें तो ऐसी चलती हैं, जैसे अपराध नहीं हुए तो चैनल बंद हो जाएगा। मेरा यह भी नहीं कहना है कि चैनल को गुडी-गुडी होना चाहिए, लेकिन लोगों के पास ढेरों समस्याएं उनके निराकरण के लोगों को बेनकाब किया जा सकता है। समाज और राज्य में ज्यादा से ज्यादा अच्छाई लाने बुराईयों को खत्म करने की कोशिश होनी चाहिए। न की गलत कामों को इस तरह पेश किया जाए कि लोग उसके तरफ आकर्षित हो। हम ऐसे लोगों को सामने लाने के लिए सिर्फ इसलिए परहेज करते हैं, क्योंकि वे लोग प्रभावशाली होते हैं। मेरा कहना है कि प्रभावशाली और दबंग लोगों की असलियत सामने लाकर टीआरपी में अच्छा काम किया जा सकता है।
May 31, 2010
आखिर यह कौन सा तंत्र है ?
अगर आप से तंत्र (शासन) के बारे में पूछा जाए, तो आपका जवाब लोकतंत्र या प्रजातंत्र जैसा कुछ होगा। अगर एक और तंत्र के बारे में बताऊं, तो चौंकने की जरूरत नहीं। क्योंकि यह कोई नई बात नहीं है। इससे हम सभी का पाला रोज या कभी न कभी जरूर पड़ता है। हालांकि इसका अस्तित्व देश की आजादी के साथ खत्म हो गया है। ( ऐसा माना जाता है) अगर आपको इसके नाम-गाम. महत्व या मतलब के बारे में कुछ समझ में आए, तो कृपया मुझे भी बताएं, ताकि मैं भी अपने आपको इससे परिचित करवा सकूं।
दरअसल पिछले दिनों राज्य सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार के मौके पर एक बार फिर राजभवन जाना हुआ। हर बार की तरह इस बार भी राजभवन से काफी पहले पुलिस वालों ने गाड़ी रोक ली। सुरिक्षत स्थान देखकर गाड़ी पार्क करके हम लोग पैदल राजभवन के मेनगेट के पास पहुंचे। वहां पर अपना परिचय देने और प्रवेश पत्र दिखाने के बाद मैटल डिटेक्टर से जांच हुई। मोबाइल फोन बंद करने सहित कई हिदायतों के बाद भीतर जाने दिया गया। ( हालांकि यह प्रक्रिया मैं काफी शार्ट कट में निपटा रहा हूं। क्योंकि भीतर जाने लंबी लाईन थी। काफी इंतजार और औपचारिकताओं के बाद हमारा नंबर आ आया। पहले पीआरओ से ओके रिपोर्ट मिलने के बाद सुरक्षा बल के जवान अपने लिस्ट से मिलान कर दूसरे और तीसरे साथी को बता रहे थे।)
खैर, सुरक्षा कक्ष से निकलते और राजभवन में धुसते ही लाल कालीन पर चलकर दरबार हाल में दाखिल हुए। यहीं पर शपथ ग्रहण का कार्यक्रम होना था और आमतौर पर यहीं पर होता है। अपने स्थान पर बैठकर कार्यक्रम शुरू होने का इंतजार करते रहे। चूंकि राजभवन का कार्यक्रम एकदम तय समय पर शुरू और खत्म होता है और आंगुतकों को आधे घंटे पहले बुलाया जाता है। लिहाजा लोगों ( मेरे) के पास काफी समय था। हर बार की तरह दरबार हाल पर नजरें दौड़ रही थी। एक तो जैसे कि मेरी समझ है यह दरबार हाल का नाम अंग्रेजों के जमाने का है। अंग्रेजी हुकूमत के समय राजा जनता के बीच अपना दरबार लगाते थे। आज के दौर में भी यह नाम सुनते और लिखते समय काफी अटपटा लगता है।
यह नाम सुनकर ही ऐसा लगता है जैसे यहां की दीवारें और चकाचौंध करने वाली एक-एक चीज, लोग अंग्रेज राज की याद दिलाकर चीख-चीख कर गुलामी की दास्तान बता रहे हो। यहां का माहौल भी कुछ इसी तरह का लगता है जैसे कि यहां मौजूद लोग अंग्रेजों के साये में लगान की माफी के लिए राजा से याचिका लगाने आए हों। यहां तैनात पुलिस के अफसरों से लेकर अर्दली तक के कपड़े-लत्ते और हाव-भाव भी कुछ ऐसा ही रहता है। जैसे-तैसे समय कट रहा था, इसी बीच 11 बजते ही शपथ दिलवाने के लिए महामिहम को सामने के बड़े दरवाजे से राजदंड ( भारी भरकम शायद चांदी से बना दंड़, जिसका मतलब क्या है, समझ से परे है।) थामे लोगों तथा आला अधिकारियों ने दरबार हाल में दाखिल करवाया। उनके भीतर घुसते ही सभी ने खड़े होकर अभिवादन किया और पुलिस अफसरों ने टोपी चढ़ाकर चुस्त अंदाज में सलामी ठोंकी। उन्होंने अग्रेजों के जमाने की और उनकी याद दिलाने वाले सिंहासन पर आसान ग्रहण किया। फिरंगी अंदाज में अधिकारियों ने कार्यक्रम शुरू और खत्म करने की इजाजत मांगी। हाल के एक ओर बने बालकनी से राष्ट्रधुन की गूंज से कुछ देर के लिए भारतीय होने का अहसास होता है।
जानकार बताते हैं कि राजदंड और इस दरबार का उपयोग केवल खास मौकों पर कभी-कभार होता है। लेकिन इसकी साजसज्जा किसी राजमहल से कम नहीं है। यहां एक-दो नहीं बल्कि 21 महंगे और भव्य झूमर को देखकर हर बार आंखे चौंधिया जाती है। यह तो इसकी बहुत छोटी सी झलक है। इससे ज्यादा और क्या हो सकता है। मैं इसकी कल्पना करने से कतरा रहा है। हर बार यहां के कार्यक्रमों में शामिल होते समय और इसके बाद मेरे दिमाग में यह ख्याल जरूर आता है कि आखिर यह कौन सा तंत्र है। अगर आपको इसके बारे में कुछ समझ आए तो जरूर बताएं। धन्यवाद
May 04, 2010
बस्तरिया की नई सवारी, सरकार की पुरानी लापरवाही
आज के दौर में मोटरसाइकिल के बारे में कुछ कहा जाए,तो थोड़ा सा भी बोल सकने वाला बच्चा अलग-अलग कंपनियों की बाइक की खूबियों और बुराइयों के बारे में आसानी से बता देगा, लेकिन आपसे कहा जाए कि अबूझमाड ( नारायणपुर जिले का वह गांव, जो आज तक राजस्व रिकार्ड में शामिल नहीं है और जिसका सर्वे तक नहीं हो पाया है) का आदिवासी जिसके पास तन ढ़कने के लिए बमूश्किल गमछा से ज्यादा बड़ा कपड़ा और खाने के लिए दो रोटी से अधिक से कुछ भी नहीं है, वो आज मोटरसाइकिल का मालिक है, तो आपको आशचर्य होगा, लेकिन चौंकने से पहले आपको बता दूं कि बात सौ फीसदी सही हैं। यह बात अलग है कि वो वास्तव में तो वही लगोटधारी आदिवासी है, लेकिन सरकारी रिकार्ड में तो वह बाइक का मालिक है।
बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी का जुगाड़ करने वाला धुर नक्सली जिला दंतेवाड़ा के पामेड गांव का आदिवासी भीमा मंड़ावी इनदिनों इसी बात को लेकर परेशान हैं कि सरकारी रिकार्ड में वो मोटरसाइकिल का मालिक कैसे बन गया। ये केवल भीमा का मामला नहीं है, बल्कि सैकड़ों ऐसे लोग हैं जिनके नाम से थोक में फर्जी तरीके से मोटरसाइकिलें खरीदी गई है। अब आपके दिमाग में चल रहा होगा कि आदिवासी इलाकों में कौन भला मानस या सरकार आ गई जो गरीबों को मोटरसाइकिल खरीदकर दे रही है। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। एक अंग्रेजी अखबार में छपी खबर के मुताबिक नक्सल इलाकों में नक्सली भोले-भाले और गरीबों के नाम पर मोटरसाइकिल खरीद रहे हैं। इतना ही नहीं, बीहड जंगलों में मोटरसाइकिल से अपने अभियान को बखूबी अंजाम दे रहे हैं।
आपको जानकर आश्चर्य होगा दंतेवाड़ा जिले में लगातार मोटरसाइकिल की बिक्री बढ़ रही है। इलाके के डीलरों का दावा है कि पांच सालों में वहां बिक्री में 40 फीसदी की बढ़ातरी हुई है। यह आंकड़ा हर साल 5-10 फीसदी बढ़ रहा है। एक दोपहिया कंपनी के अधिकारी का कहना है बस्तर में उन्होंने 2009-10 में 6 हजार गाडि़या बेची है। जिसमें से 15 सौ गाडिया दंतेवाड़ा में बिकी है। इसी तरह नारायणपुर में हर महीने 50 से अधिक मोटरसाइकिल की बिक्री हो रही है। .
पुलिस के अफसरों भी इस बात को मान रहे हैं कि उनके पास इस बात के प्रमाण है कि नक्सली आदिवासियों के नाम पर गाड़िया खरीद रहे हैं। डीलरों भी कह रहे हैं है कि वे लोग गाड़ी खरीदने वालों की पहचान की जांच नहीं करते। पुलिस के अफसरों का तो यह भी दावा है कि दंतेवाड़ा के 50 से ज्यादा गांव ऐसे हैं, जहां पर नक्सली मोटरसाइकिल खरीदने के लिए बेरोजगार आदिवासियों को फायनेंस कर रहे हैं, या उनके लिए फंड इकठ्ठा कर रहे हैं। लेकिन पुलिस की यह जानकारी किस काम की। वो कार्रवाई करने में अपनी लाचारी बता रहे हैं।
जानकारों का तो यह भी कहना है कि वे इन मोटरसाइकिलों का उपयोग अपने अभियान में कर रहे हैं। यही वजह है कि अर्द्ध सैनिक बलों और पुलिस से पहले वे अपने काम को अंजाम देकर आसानी से गायब हो जाते हैं।
आदिवासी इलाकों में एफएमसीजी प्रोडक्ट से लेकर इलेक्ट्रानिक सामानों की बिक्री में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। यहां भले ही बिजली नहीं रहती, लेकिन लोग टीवी और फ्रिज का मजा ले रहे हैं। कुल मिलाकर अब यह बात तो साफ हो गया है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को नंगा-भूखा और पिछड़ा समझने वाले लोगों को अपनी राय बदलनी होगी। क्योंकि वे न तो नंगे-भूखे है और दिन-दुनिया से बेखबर है। दूसरी तरफ नक्सली समस्या से निपटने सरकारों की गंभीरता का बखूबी अंदाजा लगाया जा सकता है।
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