May 04, 2010

बस्तरिया की नई सवारी, सरकार की पुरानी लापरवाही


आज के दौर में मोटरसाइकिल के बारे में कुछ कहा जाए,तो थोड़ा सा भी बोल सकने वाला बच्चा अलग-अलग कंपनियों की बाइक की खूबियों और बुराइयों के बारे में आसानी से बता देगा, लेकिन आपसे कहा जाए कि अबूझमाड ( नारायणपुर जिले का वह गांव, जो आज तक राजस्व रिकार्ड में शामिल नहीं है और जिसका सर्वे तक नहीं हो पाया है) का आदिवासी जिसके पास तन ढ़कने के लिए बमूश्किल गमछा से ज्यादा बड़ा कपड़ा और खाने के लिए दो रोटी से अधिक से कुछ भी नहीं है, वो आज मोटरसाइकिल का मालिक है, तो आपको आशचर्य होगा, लेकिन चौंकने से पहले आपको बता दूं कि बात सौ फीसदी सही हैं। यह बात अलग है कि वो वास्तव में तो वही लगोटधारी आदिवासी है, लेकिन सरकारी रिकार्ड में तो वह बाइक का मालिक है।
बड़ी मुश्किल से दो जून की रोटी का जुगाड़ करने वाला धुर नक्सली जिला दंतेवाड़ा के पामेड गांव का आदिवासी भीमा मंड़ावी इनदिनों इसी बात को लेकर परेशान हैं कि सरकारी रिकार्ड में वो मोटरसाइकिल का मालिक कैसे बन गया। ये केवल भीमा का मामला नहीं है, बल्कि सैकड़ों ऐसे लोग हैं जिनके नाम से थोक में फर्जी तरीके से मोटरसाइकिलें खरीदी गई है। अब आपके दिमाग में चल रहा होगा कि आदिवासी इलाकों में कौन भला मानस या सरकार आ गई जो गरीबों को मोटरसाइकिल खरीदकर दे रही है। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है। एक अंग्रेजी अखबार में छपी खबर के मुताबिक नक्सल इलाकों में नक्सली भोले-भाले और गरीबों के नाम पर मोटरसाइकिल खरीद रहे हैं। इतना ही नहीं, बीहड जंगलों में मोटरसाइकिल से अपने अभियान को बखूबी अंजाम दे रहे हैं।
आपको जानकर आश्चर्य होगा दंतेवाड़ा जिले में लगातार मोटरसाइकिल की बिक्री बढ़ रही है। इलाके के डीलरों का दावा है कि पांच सालों में वहां बिक्री में 40 फीसदी की बढ़ातरी हुई है। यह आंकड़ा हर साल 5-10 फीसदी बढ़ रहा है। एक दोपहिया कंपनी के अधिकारी का कहना है बस्तर में उन्होंने 2009-10 में 6 हजार गाडि़या बेची है। जिसमें से 15 सौ गाडिया दंतेवाड़ा में बिकी है। इसी तरह नारायणपुर में हर महीने 50 से अधिक मोटरसाइकिल की बिक्री हो रही है। .
पुलिस के अफसरों भी इस बात को मान रहे हैं कि उनके पास इस बात के प्रमाण है कि नक्सली आदिवासियों के नाम पर गाड़िया खरीद रहे हैं। डीलरों भी कह रहे हैं है कि वे लोग गाड़ी खरीदने वालों की पहचान की जांच नहीं करते। पुलिस के अफसरों का तो यह भी दावा है कि दंतेवाड़ा के 50 से ज्यादा गांव ऐसे हैं, जहां पर नक्सली मोटरसाइकिल खरीदने के लिए बेरोजगार आदिवासियों को फायनेंस कर रहे हैं, या उनके लिए फंड इकठ्ठा कर रहे हैं। लेकिन पुलिस की यह जानकारी किस काम की। वो कार्रवाई करने में अपनी लाचारी बता रहे हैं।
जानकारों का तो यह भी कहना है कि वे इन मोटरसाइकिलों का उपयोग अपने अभियान में कर रहे हैं। यही वजह है कि अर्द्ध सैनिक बलों और पुलिस से पहले वे अपने काम को अंजाम देकर आसानी से गायब हो जाते हैं।
आदिवासी इलाकों में एफएमसीजी प्रोडक्ट से लेकर इलेक्ट्रानिक सामानों की बिक्री में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। यहां भले ही बिजली नहीं रहती, लेकिन लोग टीवी और फ्रिज का मजा ले रहे हैं। कुल मिलाकर अब यह बात तो साफ हो गया है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को नंगा-भूखा और पिछड़ा समझने वाले लोगों को अपनी राय बदलनी होगी। क्योंकि वे न तो नंगे-भूखे है और दिन-दुनिया से बेखबर है। दूसरी तरफ नक्सली समस्या से निपटने सरकारों की गंभीरता का बखूबी अंदाजा लगाया जा सकता है।

2 comments:

Sanjeet Tripathi said...

vakai is mudde par sarkar ko dhyan dena chahiye...

36solutions said...

आंखें खोल देने वाले तथ्‍य हैं.

बहुत दिनों बाद आये भाई, धन्‍यवाद.