छत्तीसगढ़ में नक्सली हिंसा जगजाहिर है। दुनिया में सबसे अलग बस्तर की स्थिति संभवत काफी पीड़ादायक है लेकिन इस मुद्दे पर सरकार,विपक्ष,पत्रकारों,एनजीओ,मानवाधिकार संगठनों सभी की अपनी दुकानदारी है। तमाम लोग समस्या को सुलझाने के बजाए उलझाने में लगे हैं। यह मेरा व्यक्तिगत तौर पर कोई निकाला निष्कर्ष नहीं बल्कि समय-समय पर इसके प्रमाण मिले हैं।
वास्तव में कोई समस्या का निपटारा नहीं चाहता,जाहिर सी बात है कि नक्सलवाद चरम स्थिति पर पहुंच गया है। आम नागरिक की हैसियत से छत्तीसगढि़या के मन में यह सवाल आता ही होगा कि राज्य में कब एक जैसा (बस्तर और दूसरी जगह मे)कानून आएगा और कब आदिवासियों,जवानों-नक्सलियों के बीच संघर्ष खत्म होगा। लगातार खूनखराबे में बढ़ोत्तरी हो रही है और लोगों में दहशत का वातावरण बनते जा रहा है। बस्तर से राजधानी तक हिंसा के सामानों का अदान-प्रदान दिखाई देने लगा है,हालांकि नक्सलियों के सिटी नेटवर्क को ध्वस्त करने में पुलिस को काफी सफलता मिली है। दूसरी तरफ इसे खतरनाक संकेत मानने के पर्याप्त आधार हैं।
पुलिस ने हाल-फिलहाल में नक्सलियों के मदद से मामले में स्वतंत्र पत्रकार प्रफ़ुल्ल झा,सामाजिक कायकर्ता बिनायक सेन समेत अन्य लोगों को गिरफ़्तार किया है। इनसे पूछताछ में पत्रकारों को माहवारी पैसा मिलने की जानकारी तो मिली है। डीजीपी ने अपने कई इंटरव्यू में एनजीओ-मानवाधिकार संगठनों की भूमिका पर सवाल उठाए हैं। आदिवासी और नक्सल क्षेत्रों में काम करने के लिए संगठनों को सरकारी और विदेशी पैसा भरपूर मिल रहा है। जानकार आश्चर्य होता है कि राज्य बनने केञ् बाद यहां एनजीओ की सख्या भी पचास हजार को पार कर चुकी है। इसमें खास बात यह भी सामने आई है कि अधिकांश संस्था नेता-मंत्री और अफसरों की है। ऐसे में संस्थाओं पर सवाल का मतलब भी जाहिर है।
भले ही बहुत सारे आम आदमी की तरह मै भी नक्सलियों की आडियोलाजी और सरकार,विपक्ष,संगठनों की गैरकानूनी हिंसा के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान-कार्यक्रम से वाकिफ हूं या न नहीं। यह अलग बात है लेकिन असल सवाल यह उठता है कि अपनी दुकानदारी के लिए आदिवासियों-जवानों केञ् मौत के सौदागरों से कैसे निपटा जाए। प्रभावित लोग सरकार,संगठन,नेताओं का साथ देकर फ़स रहे हैं। ऐसे लोग अलग-थलग तो पड़े हैं,साथ ही इस असमंजस भी हैं कि आखिर किसका साथ दिया जाए।
सरकार और नेता आंकड़ों में उलझे हैं कि इस साल वारदातें बढ़ी-घटी है पर असल सवाल तो यह है कि घटनाएं हो रही है। सरकार की दलील है कि आजादी के लिए तो कुर्बार्नी देनी ही पड़ती है। मुझे लगता है कि यह बिना मतलब का तर्क है। समस्या पर तमाम लोगों को एकजुट और गंभीर होना पड़ेगा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक सैकड़ों गांव खाली हो गए हैं। पचास हजार परिवार कैम्पो में रहकर सालों से निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। शिविरों में महिलाओं-बच्चों के इलाज,पढ़ाई,खाने-पीने की व्यवस्था का अभाव है। अव्यवस्थाओं के बीच सरकार का करोड़ों रूञ्पया व्यर्थ में खर्च भी हो रहा है।
February 14, 2008
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6 comments:
हिंसा-प्रतिहिंसा के परे ऐसे मुद्दों पर निरंतर बहस जरूरी है और ऐसे लेखों की भी आवश्यकता है छत्तीसगढ को । धन्यवाद ।
कोन नामवर सिंह : आरंभ में
नेता मन्त्री अफ़सर यहाँ तक की पुलिस भी मिली हुई है तबही तो पत्रकरों को या जो भी इनके खिलाफ़ आवाज उठाता है चुप करा दिया जाता है...
सही बात!!
इसी बात को लेकर मन उलझा रहता है अक्सर, सलावा जुडूम जिसे सरकारी कहा जाता है और नक्सली हिंसा, दोनो के बीच में पिस रहा आम आदिवासी न तो जी पा रहा है न मर पा रहा है, सरकार और नक्सल दोनो अपनी राजनीति में लगे हैं, एन जी ओ तो खैर राज्य के आला अफसरों के भी बहुत हैं कोई शक नही।
उपाय क्या है मित्र कोई सोचता नज़र नही आता!!
भाई जी आपने बडी अच्छी बात कही .मै सहमत हुं लेकिन इसका निदान आवश्यक है .विचार का विषय है .
टेस्टिंग!!
artical is very good. but short hona cahiyae.
photo bhi add kijiye.
govind patel
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