July 17, 2009

कलम से खून न टपकने लगे !


मेरी कलम की स्याही का रंग लाल हो गया है। लाल...बिल्कुल लाल...या फिर सुर्ख लाल...लगता है कलम की धार खूनी हो गई है। आम लोगों की ढाल बनने वाली कलम अब खून की प्यासी हो गई है। डर लगता है कि कहीं कलम से खून न टपकने लगे। हो सकता है कि ऐसा केवल मेरे साथ नहीं आप के साथ भी हो रहा हो। दरअसल छत्तीसगढ़ में रोजाना कत्लेआम और नक्सली हिंसा की खब़रों से तो ऐसा ही लगता है। रोजाना नक्सली हिंसा में शहीद होने वाले जाबांज सिपाहियों की खब़र लिख-लिख, लगने है कि स्याही से अब केवल खून ही निकलता है। ऐसा कोई भी दिन नहीं बीतता होगा जिस दिन प्रदेश में हत्या, बलात्कार और हिंसा की खब़र नहीं मिलती हो। हद तो तब हो जाती है जब नक्सली हिंसा में एक साथ दर्जनों जवानों और पुलिस वालों की मौत हो जाती है। बात चाहे राजधानी रायपुर की हो या फिर बस्तर की। रानीबोदली, रिसगांव हो या फिर मदनवाड़ा। बस इस कलम से खून टपकना बाकी है। ऐसा लगता है जैसे कलम की स्याही को निकला जाए तो खून बनकर ही टपकेगा।

मदनवाड़ा की घटना की खब़र जब लगी तो ऐसा आभास नहीं था कि इतनी बड़ी घटना हो जाएगी। सुबह करीब 11 सवा 11 बजे फ्रेश होकर कमरे में घुसा तो मोबाइल पर एक मिस्ड कॉल था। फोन सीआरपीएफ के एक वरिष्ठ अधिकारी का था। वापस फोन लगाया तो अधिकारी ने काफी हड़बड़ी में जानकारी दी कि नक्सली मुठभेड़ में दो जवान शहीद हो गए हैं और दो की हालत गंभीर है। जल्दीबाज़ी में टीवी ऑन किया तो किसी भी चैनल में ऐसी कोई भी खब़र नहीं थी। ऑफिस से भी इस बारे में जानकारी नहीं मिली तो अपने सहयोगी को जानकारी देकर खब़र की पुष्टि करने कहा। इसके कुछ ही देर बाद चैनल में खब़र चलनी शुरू हो गई। इसके थोड़ी देर बाद फिर से अधिकारी को फोन लगाया तो उन्होंने कहा कि वे खुद भी ऑपरेशन में जुटे हैं, हो सकता है कि बड़ी अनहोनी की खब़र आपको थोड़ी देर में मिल जाए। उनके संकेत से अंदाजा लग गया कि ये अब तक का सबसे बड़ा हमला हो सकता है। इस बीच लगातार टीवी से अपडेट मिल रहा था। कुल मिलाकर हुआ भी वही, जिसका डर था। एक बार फिर हमने एक वरिष्ठ अफसर समेत 36 जवानों को खो दिया।

इस हमले के बारे में लिखकर मैं केवल संवेदना व्यक्त कर सकता हूं। हमले के विस्तार में भी नहीं जाना चाहता। न ही आलोचना करना चाहता हूं। मुझे लगता है कि अब इस मसले के खा़त्मे के लिए मिल बैठकर गंभीरता से विचार करने का समय आ गया है। वरना वो दिन दूर नहीं जब मेरी कलम भी खून की होली खेलते नज़र आएगी। मुझे तो अब इस बात का इंतज़ार है कि कैसे मेरी कलम की स्याही का रंग वापस नीला हो।

6 comments:

Barun Sakhajee Shrivastav said...

दुर्भाग्य ये था कि हमला हुआ महादर्भाग्य था कि समान दिन की घटनाएं
1.दिल्ली में मेट्रो हादसे में 2 की मौत ( बाद में 6हुई)
2.दिल्ली हाई कोर्ट का 377 वाला फैसला (जो एक दिन हपले ही सुर्खियों में था)
3.दस का दम में कैटरीना (सोनी टीव्ही का प्रसिद्ध धारावाहिक)
4.छत्तीसगढ़ में एसपी समेत 36 पुलिस कर्मी शहीद
औऱ ख़बरों का क्रम भी राष्ट्रीय माडिया में यही था...थैंक्स ज़ी न्यूज़ को जिसने सबसे पहले इस मसले को ब्रेक करके सभी का ध्यान इस ओर आकर्षित किया....इसे क्या कहिए संसद में अगर चरणदास नहीं होते तो शायद ये मसला केंद्रीय मंत्रालाय तक नहीं पहुंच सकता था।।।।।... ग़ुस्सा तो इतना है जिसे बयान करने बैठें तो शायद नौकरी भी ना रहे क्योंकि दोषियों की सूची बड़ी लंबी है......

Udan Tashtari said...

दुखद एवं अफसोसजनक!

36solutions said...

सत्‍य कह रहें हैं भाई, आपलोगों की समाचारों के प्रति संवेदनशीलता, प्रतिबद्धता एवं विवशता के हम कायल हैं.

Anil Pusadkar said...

कभी लगातार हादसो के बाद मैने अपने कालम का शीर्षक लिखा था"अख़बारो को निचोड़ोगे तो खून टपकेगा"।आज फ़िर उसकी याद ताज़ा हो गई।

निर्मला कपिला said...

रब तो तभी ये मंजर रुकेगा जब की सभी कलमें खून की होली ना खेलने लगें वैसे भी इतना सा खून हमारी सरकार को हज्म होने लगा है आभार््

Manoj Singh said...

बातें तो आपकी बिल्कुल सही हैं, लेकिन ये कलमकार ही तो हैं जो बीहड़ों की खबरें भी अपने कलम के दम पर खींच लाते हैं और वो कर दिखाते हैं जो एक सिपाही अपने अत्याधुनिक हथियारों के दम पर भी नहीं कर पाता....
शहादत पर हमारा गुस्सा लाज़मी है लेकिन ये और भी जायज़ हो जाये जब हमारे राजनेता राजनीति छोड़कर वाकई मुद्दों की बातें करें............