दांडी सफरनामा
सूरत से समरेन्द्र शर्मा
गुजरात के प्रमुख औद्योगिक शहर और हीरा कारोबार के लिए मशहूर सूरत में देश और दांडी मार्च के नगिने महात्मा गांधी की चमक फीकी पड़ गई है। नमक आंदोलन के जरिए देश को आजादी दिलाने और दुनिया को सत्य-अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले बापू के इस सूबे में आज खुशहाली, संपन्नता और ऐश्वर्य तो है, लेकिन सूरत में दूर-दूर तक गांधी का नामलेवा नजर नहीं आता।
कमरतोड़ मेहनत करने वाले गुजराती जायके के भी शौकीन है। यही वजह है कि सूरत की घारी का स्वाद जेहन से दूर नहीं होता। भावनगर का गांठिया और ढोकला भी यहां की खास पहचान है। शिक्षा-दीक्षा, रोजगार, संपन्नता और विकास से परे सूरत की तमाम खूबियों के बावजूद यहां से बापू के निशान पूरी तरह मिट चुके हैं। ऐसा लगता है कि मानो गांधीजी का इस शहर से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। जबकि यह बापू की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनो रही है। दांडी के लिए कूच करने से पहले हमने सूरत में पूरा का पूरा एक दिन बिताया। इस दौरान लंबी-चौड़ी सड़कों, गली-कूचे से लेकर लगभग सभी बड़े रास्तों पर पड़ने वाले ओवर ब्रिज में घूम-घूमकर बापू के पदचिंहों को तलाशने की कोशिश की, लेकिन हमें हर जगह निराशा ही हाथ लगी। आश्चर्य की बात यह भी थी कि अधिकांश लोग इस बात से भी अनभिज्ञ थे कि दांडी यात्रा के दौरान बापू ने शहर को अपना मुकाम बनाया था। सूरत से पहले छपराभाट्ठा में, जहां गांधीजी ने दोपहर को विश्राम किया था, वहां हमें केवल इतना पता चला कि गांधी सूरत के डिंडौली में रूके थे और उसी रास्ते से होते हुए दांडी गए थे। छपराभाट्ठा के स्कूल में जहां बापू रूके थे, वहां पर दीवार पर केवल एक पत्थर लगा हुआ दिखाई दिया। यहां जिस घर में गांधीजी रूके थे, वहां जाकर देखने पर मालूम हुआ कि फिलहाल घर में रखरखाव का काम चल रहा है और उस वक्त वहां कोई भी मौजूद नहीं था। डिंडौली में छपराभाट्ठा की तरह ही एक शिलालेख बापू की दांडी यात्रा का गवाही दे रहा था।
1 comment:
समय की मोटी परत.
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