April 30, 2011

दांडी की राह पर साकार होता बापू का सपना







 

दांडी सफरनामा

 

नवसारी से समरेन्द्र शर्मा

 

महात्मा गांधी की दांडी यात्रा की राह नवसारी पर मानव मंदिर ट्रस्ट ने बापू के सपनों का भारत बनाने देश के सामने एक मिसाल पेश की है। संस्था ने अंधे, गूंगे-बहरे और मानसिक विकलांग बच्चों की सेवा का बीडा उठाया है। यहां पिछले 40 सालों से ऐसे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई से लेकर उनके खाने-पीने, रहने का इंतजाम है। संस्था के अध्यक्ष और वरिष्ठ गांधीवादी महेश कोठारी का मानना है कि आज भले ही गांधीजी लोगों को दिखाई नहीं दे रहे है, लेकिन वे आज भी हमारे बीच है। उन्होंने उम्मीद जताई कि लगे रहो मुन्नाभाई फिल्म की गांधीगीरि ने ही बापू के प्रति जागृति लाई है।

महात्मा गांधी ने दांडी यात्रा के दौरान सूरत, डिंडौरी, वांज, धमन के बाद नवसारी को यात्रा को आखिरी दिनों में अपना पड़ाव बनाया था। यहां से कलाडी और दांडी की यात्रा पूरी की थी। नवसारी से दांडी का फासला लभभग 13 मील का है। साबरमती से सूरत तक की दूरी तय करने के दौरान कई ऐसे स्थान भी देखने को मिले,जहां बापू का कोई नामलेवा नजर नहीं आया। नवसारी पहुंचने पर मानव मंदिर ट्रस्ट की गतिविधियों को देखकर लगा कि आज भी गांधीजी के संदेशों और आदर्शों का पालन करते हुए समाज में रोशनी लाने की कोशिश की जा रही है। 

 

मानव मंदिर ट्रस्ट की 1970 में स्थापना की गई। संस्था के अध्यक्ष कोठारी दादा बताते हैं कि यहां लगभग 550 गूंगे-बहरे, अंधे और अपाहिज बच्चों को रखा गया है। ये ऐसे बच्चे हैं, जिन्हें समाज और घर परिवार वाले तक अपने साथ रखना पसंद नहीं करते। ऐसे गरीब और आदिवासी बच्चों के लालन-पालन के लिए नवसारी में दो तथा यहां से 110 किमी दूर दांड में आवासीय स्कूल चलाए जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि अपने बड़े भाई प्रवीण भाई कोठारी की असमय मौत के बाद इस संस्था को शुरू किया। उनका उद्देश्य था कि समाज के ऐसे वर्ग की सेवा करना, जिसे तिरस्कार की नजर से देखा जाता है। महात्मा गांधी भी ऐसे लोगों की सेवा करने को ही असली सेवा मानते थे। यहां के बच्चों की दिनचर्या योग से शुरू होती है। स्नान के बाद प्रार्थना, नाश्ता और पढ़ाई-लिखाई का काम होता है। यहां बच्चों को औद्योगिक प्रशिक्षण भी दिए जाते हैं, ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें।

संस्था को उसकी सेवा के लिए साल 2008 में राजीव गांधी मानव सेवा अवार्ड से नवाजा गया था। एक पहली ऐसी स्वयं सेवी संस्था है, जिसे अपने उल्लेखनीय कार्यों के लिेए यह पुरस्कार दिया गया। वरिष्ठ गांधीवादी नेता आज के माहौल और बापू की बातों से दूर होते समाज को देखकर दुखी है। इसके बावजूद वे मानते हैं कि गांधी कल, आज और कल भी प्रस्तुत हैं। भले ही अभी अंधकार दिखाई दे रहा है, लेकिन उजाला आएगा। देश के नौजवान उठ रहा है। हो सकता है कि गांधीजी का ठिकाना भारत न हो, लेकिन दुनिया में उनके विचारों को आगे बढ़ाया जा रहा है। गांधी तो एक विचार है, जिसको जरूरत लग रही है, वो उन्हें अपना रहे हैं।

 दादा कहते हैं कि उन्हें गांधीगीरि शब्द अच्छा नहीं लगता। लेकिन इस फिल्म ने गांधी को लोकप्रिय बनाने का काम तो बखूबी किया है। इसके बाद लोग गांधी को समझने और जानने के लिए मजबूर हुए हैं। खासतौर पर युवाओं ने बापू के पदचिंहों पर चलने में दिलचस्पी दिखाई है। दरअसल, देश का युवा मौजूदा गांधीवादियों के चेलों से काफी नाराज है। वे युवाओं को गांधी के समीप नहीं आने देना चाहते। गांधीवादियों को अपनी मानसिकता बदलनी होगी, तभी युवाओं की नाराजगी दूर की जा सकती है।

 

 

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