दांडी सफरनामा
बहरूच-अंकलेश्वर से समरेन्द्र शर्मा
हैलो...हैलो...हैलो...मैं गांधी बोल रहा हूं...दूसरी तरफ से...हैलो...आपकी आवाज नहीं मिल रही है। दांडी मार्ग पर तामझाम और अनाप-शनाप खर्च को देखकर लगता है कि गांधीजी अपने सादगी पसंद स्वभाव को याद दिलाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं, लेकिन शायद उनकी आवाज लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। दरअसल, गांधीजी ने आखिरी दिनों में कहा था कि इस दुनिया से अलविदा होने के बाद मेरी बातों और मेरे किए को मिटा देना, हो सके तो मेरे कर्मों को याद रखना, लेकिन यहां ठीक उलटा हो रहा है और गांधीजी की सादगी और सदाचार के प्रचार-प्रसार में ही लाखों-करोड़ों रूपए फूंके जा रहे हैं। दांडी की पगड्डियों ने नेशनल हाईवे का रूप ले लिया है और उनकी याद दिलाने वाले स्मारकों का स्वरूप ऐसा बदल गया है कि वहां केवल धूल खाती तस्वीरें और उजाड़ भवन नजर आते हैं। आश्चर्य होगा कि सरकार ने गांधीजी को सहेजने एक हजार आठ सौ करोड़ से भी अधिक पैसा खर्च किया है।
आओ गांधी टोपी और सूत की माला पहनकर गांधी की पगड्डियों पर चले हम। दांडी कूच के लिए निकलते समय कुछ इस तरह का जज्बा हर भारतीय के जेहन में रहता है। ऐसा इरादा लेकर यात्रा करने वालों को रास्तों पर तामझाम और लोगों की गांधी के प्रति कम होती दिलचस्पी देखकर निराशा हो सकती है। हमने अभी तक दांडी का आधा सफर पूरा कर लिया है। इस दौरान हम बोरअवी, बोरसद, नापा, कंकापुरा, जम्बूसर और समनी जैसे गांवों को पार किया, जहां गांधीजी ठहरे थे और लोगों को संबोधित किया था। ऐसे हर गांवों में गांधीजी की यादों को सहेजने के लिए लाखों-करोड़ों रूपए खर्च किए गए हैं। पूरे रास्ते को नेशनल हाईवे 228 घोषित किया गया है। साबरमती से दांडी तक गांधीजी की पगड्डियों को नेशनल हाईवे बनाने के लिए एक हजार आठ सौ करोड़ रूपए खर्च किए गए हैं। इसके अलावा स्मारकों और भवनों के लिए सौ करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया था। मार्ग के कई गांवों में गांधी भवन या आश्रम का निर्माण कार्य पूरा भी हो गया है, लेकिन इसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। अधिकांश स्थान एक चौकीदार या गांव वालों के भरोसे है। इन स्थानों पर बापू का चरखा, तस्वीर और उनके द्वारा उपयोग की गई वस्तुएं धूल खाती पड़ी हुई है।
गांधी स्मारकों की हालात देखकर कहा जा सकता है कि बापू के प्रति गांवों वालों की दिलचस्पी भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। हर गांवों में दांडी यात्रियों का सम्मान तो भरपूर किया जाता है, लेकिन यह सिर्फ स्वागत-सत्कार तक सीमित रहता है। गांधीजी के बारे में पूछने या उनकी बातों से किसी को बहुत ज्यादा लगाव नहीं देखने को मिलता है। दरअसल सरकारें भी गांधीजी को ब्रांड एम्बेसडर के रूप में इस्तेमाल करने में लगी है। ऐसे में गांव के लोगों और बच्चों के लिए गांधीजी छुट्टियों तक सिमट गए हैं।
बापू के लिए हजारों करोड़ रूपए के खर्च करने के प्रस्ताव का उनके परपोते और पूर्व राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने भी काफी विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि जिस पर चलकर महात्मा गांधी और उनके 78 सहयात्रियों ने नमक सत्याग्रह किया था जिसने भारत की ब्रिटिश सरकार ही नहीं पूरी दुनिया की आत्मा को झकझोर दिया था। उस मार्ग को आ जादी के आंदोलन की धरोहर बनाकर स्थायी महत्व देने का प्रस्ताव गांधीजी के विचार और जीवन से बिल्कुल असंगत होगा। खासकर ऐसे वक्त जब आधे से ज्यादा भारत में समस्याओं की भरमार है। तब ऐसी चीजों पर इतना पैसा खर्च करना बिल्कुल अनुपातविहीन और असंगत होगा। उन्होंने यह भी कहा था कि एक सादा सा स्मारक बने जिस पर दांडी कूच करने वालों के नाम खुदे हों। लेकिन सरकारों को उनका प्रस्ताव पसंद नहीं आया। और पूरे रास्ते को हेरिटेज रूट का रूप दिया गया है।
रास्ते पर चलते हुए ऐसा लगता है कि मानो हमने बापू की बातों और किए के अलावा कर्मों को भी भूला दिया है। जबकि गांधीजी ने अपने कर्मों को याद रखने की सलाह दी थी। दांडी यात्रा के दौरान गांधीजी ने जिन तकलीफों और संघर्ष के साथ मार्च किया था, उसके निशान भी धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। जबकि उन्होंने तो यात्रा के लिए बकायदा कई नियम भी बनाए थे, जिसमें रूकने से लेकर खाने-पीने तक के लिए पक्के नियम थे। लेकिन इन 81 सालों में सब-कुछ बदल सा गया है। ऐसे लगता है मानो गांधीजी अपनी सादगी की बातें लोगों को याद दिलाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज तामझाम और राजनेताओं के श्रेय लेने की होड में दब सी गई है।
आओ गांधी टोपी और सूत की माला पहनकर गांधी की पगड्डियों पर चले हम। दांडी कूच के लिए निकलते समय कुछ इस तरह का जज्बा हर भारतीय के जेहन में रहता है। ऐसा इरादा लेकर यात्रा करने वालों को रास्तों पर तामझाम और लोगों की गांधी के प्रति कम होती दिलचस्पी देखकर निराशा हो सकती है। हमने अभी तक दांडी का आधा सफर पूरा कर लिया है। इस दौरान हम बोरअवी, बोरसद, नापा, कंकापुरा, जम्बूसर और समनी जैसे गांवों को पार किया, जहां गांधीजी ठहरे थे और लोगों को संबोधित किया था। ऐसे हर गांवों में गांधीजी की यादों को सहेजने के लिए लाखों-करोड़ों रूपए खर्च किए गए हैं। पूरे रास्ते को नेशनल हाईवे 228 घोषित किया गया है। साबरमती से दांडी तक गांधीजी की पगड्डियों को नेशनल हाईवे बनाने के लिए एक हजार आठ सौ करोड़ रूपए खर्च किए गए हैं। इसके अलावा स्मारकों और भवनों के लिए सौ करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया था। मार्ग के कई गांवों में गांधी भवन या आश्रम का निर्माण कार्य पूरा भी हो गया है, लेकिन इसका कोई उपयोग नहीं हो रहा है। अधिकांश स्थान एक चौकीदार या गांव वालों के भरोसे है। इन स्थानों पर बापू का चरखा, तस्वीर और उनके द्वारा उपयोग की गई वस्तुएं धूल खाती पड़ी हुई है।
गांधी स्मारकों की हालात देखकर कहा जा सकता है कि बापू के प्रति गांवों वालों की दिलचस्पी भी धीरे-धीरे कम होती जा रही है। हर गांवों में दांडी यात्रियों का सम्मान तो भरपूर किया जाता है, लेकिन यह सिर्फ स्वागत-सत्कार तक सीमित रहता है। गांधीजी के बारे में पूछने या उनकी बातों से किसी को बहुत ज्यादा लगाव नहीं देखने को मिलता है। दरअसल सरकारें भी गांधीजी को ब्रांड एम्बेसडर के रूप में इस्तेमाल करने में लगी है। ऐसे में गांव के लोगों और बच्चों के लिए गांधीजी छुट्टियों तक सिमट गए हैं।
बापू के लिए हजारों करोड़ रूपए के खर्च करने के प्रस्ताव का उनके परपोते और पूर्व राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी ने भी काफी विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि जिस पर चलकर महात्मा गांधी और उनके 78 सहयात्रियों ने नमक सत्याग्रह किया था जिसने भारत की ब्रिटिश सरकार ही नहीं पूरी दुनिया की आत्मा को झकझोर दिया था। उस मार्ग को आ जादी के आंदोलन की धरोहर बनाकर स्थायी महत्व देने का प्रस्ताव गांधीजी के विचार और जीवन से बिल्कुल असंगत होगा। खासकर ऐसे वक्त जब आधे से ज्यादा भारत में समस्याओं की भरमार है। तब ऐसी चीजों पर इतना पैसा खर्च करना बिल्कुल अनुपातविहीन और असंगत होगा। उन्होंने यह भी कहा था कि एक सादा सा स्मारक बने जिस पर दांडी कूच करने वालों के नाम खुदे हों। लेकिन सरकारों को उनका प्रस्ताव पसंद नहीं आया। और पूरे रास्ते को हेरिटेज रूट का रूप दिया गया है।
रास्ते पर चलते हुए ऐसा लगता है कि मानो हमने बापू की बातों और किए के अलावा कर्मों को भी भूला दिया है। जबकि गांधीजी ने अपने कर्मों को याद रखने की सलाह दी थी। दांडी यात्रा के दौरान गांधीजी ने जिन तकलीफों और संघर्ष के साथ मार्च किया था, उसके निशान भी धीरे-धीरे खत्म होते जा रहे हैं। जबकि उन्होंने तो यात्रा के लिए बकायदा कई नियम भी बनाए थे, जिसमें रूकने से लेकर खाने-पीने तक के लिए पक्के नियम थे। लेकिन इन 81 सालों में सब-कुछ बदल सा गया है। ऐसे लगता है मानो गांधीजी अपनी सादगी की बातें लोगों को याद दिलाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनकी आवाज तामझाम और राजनेताओं के श्रेय लेने की होड में दब सी गई है।
1 comment:
nice story
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